सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चल चले

हम साल के अंतिम दो दिनों में है......ये साल इतनी उहापोह लेकर आया कि हम कब से इसे अलविदा कहना चाह रहे थे , लेकिन हमारे चाहने से कहाँ कुछ होता है। सब कुछ नियत समय पर ही होना तय रहता है तो यह इस साल की सबसे बेहतरीन सीख रही कि वक्त की मार के आगे सब प्लानिंग फेल है। घुमक्कड़ी वाले दिन जैसे रफादफा हो गये , सब अपने ही घरों में सिमट गये हालांकि अब खौफ इतना नहीं रहा लेकिन बेवजह का घुमना अब गायब है और हमारी हँसी ये मुआ मास्क खा गया ।                 हर साल की तरह ये जाने वाला साल भी यही बता कर जा रहा है  कि हर वो चीज जो पा गये...क्षणिक रही, उसे पाने की खुशी क्षणिक रही....और जो न मिला वो हमेशा प्रिय रहा, स्थिर रहा, अलौकिक रहा,निरंतर रहा। गैरजरूरी चीजों को जरुरी समझने वाले हम सब उलझे रहे गैरजरूरी फंदों में और उधेड़ते रहे जिंदगी के लम्हों को....इस साल ने अहसास कराया कि वास्तव में जरुरी क्या है....इसने सीखाया लचीलापन,इसने सीखाया प्राप्य की अहमियत, इसने सीखाया कि बेसिक नीड आज भी हमारी रोटी कपड़ा और मकान ही है लेकिन हम और अधिक के पीछे भागते रहे । अधिक की चाह हर किसी को होती है लेकिन जो पास है

साढ़े पांच मीटर

सुनो लड़कियों तुम अगर थोड़ी कम लंबी हो  तो मैं तुम्हे लंबा दिखा सकती हूँ थोड़ी ज्यादा ही लंबी हो तो संतुलन बना सकती हूँ अगर थोड़ी सी मोटी हो, तो चिंता न करो कतई मैं तुम्हे पूरी तहजीब से तराश दूँगी ग़र पतली हो कुछ ज्यादा ही तो तुम्हारी दिखती हड्डियों को  बड़ी ही कुशलता से छुपा दूँगी बाकी रंग की तुम फिक्र ना रहो गोरी हो चाहे काली तुम बेमिसाल हो लेकिन सुनो छोरियों बेमिसाल हूँ मैं भी मैं पहचान हूँ मैं पूरी की पूरी संस्कृति हूँ मैं जादू हूँ जो किसी को भी जादुई बना दे मै कशिश हूँ मैं नशा हूँ मैं कमसिन हूँ मैं खूबसूरत हूँ यूँ तो मैं साढ़े पाँच मीटर का  महज एक कपड़ा हूँ पर इस कपड़े मे समेट लेती हूँ इस पूरे देश की  हर प्रांत की हर घर की सारी बातें दादी नानी और माँ की खुशबू बसी है मुझमे और सुनो लड़को मुझमे है एक आँचल भी जिसकी छांव तले तुम सब सुस्ताए हो जानते हो कौन हूँ मैं मैं साड़ी हूँ फैशन के इस दौर में गर्व से खुद पर इतराती हाँ....मैं साड़ी हूँ 

सुबह का जश्न

वो स्याह अंधेरा था फिर उसमे हल्की सी एक रेखा बनी ज्यादा चमकीली नहीं बस, धुंधली सी स्याह रात जो अब बैंगनी होने लगी उस बैंगनी में छुपा था चटख सिंदूरी जो हल्के नीले के ऊपर बिछा था वो बैंगनी,सिंदूरी को चुमता हुआ अलविदा कह गया रह गया पीछे से थोड़ा सा गुलाबी गहरी लाल नारंगी धारीयों के साथ इठलाता हुआ स्याह रात बैंगनी के साथ गुलाबी भी ले गयी अब रह गया सिंदूरी सिंदूरी आसमान .......अलौकिक, अद्भुत सुरज की अगवाई में सजा सा लंबी धारीयों के रुप में तोरण सा सजा हुआ नन्हे पक्षीयों के कलरव के साथ नीला रंग सिंदूरी के साथ ताल मिलाने लगा दोनो रंग , एक दूजे में रंगे दूर तक फैल गये सामने वाले पहाड़ की चोटी के थोड़ी बांयी ओर से सूरज ने ताका झांकी की जब आश्वस्त हुआ अपनी सज्जा, अगुवाई देखकर तो आहिस्ता से पूरा ऊपर आया आसमान जैसे नहाया सिंदूरी से पक्षी खुशी मनाने लगे पेड़ों के पत्ते गहरे हो गये पहाड़ मुसकाने लगे पता है.... प्रकृति हर रोज  ऐसा ही जश्न मनाती है हमे लगता है कि  सूरज तो हर रोज उगता है  लेकिन हम नहीं जानते हर सुबह कितनी मिन्नतों के बाद  उम्मीदें लिये आती है तुम कभी किसी पहाड़ के पीछे से सूरज को  निकलते देख

हमारा दिन

कल पुरुष दिवस था....बिल्कुल चुपचाप शांती से गुजर गया। न कोई हंगामा , न कोई बिग डील, न पार्टी शार्टी, न दनदनाती पोस्ट और न ही डिस्काउंट की बौछारें ।          कभी गौर करके देखियेगा अपने आस पास के पुरुषों को ,वे आज भी व्यस्त ही होंगे और कल भी व्यस्त ही थे , खुशी से उठायी हुई जिम्मेदारियों को पूरी करने में। उन्हे तो पता भी नहीं रहता कि महिलाओं की तरह उनका भी दिन मनाया जाता है । भुले भटके अगर कोई उन्हे विश कर भी दे तो शायद भीतर ही भीतर लजा जायेगे वो भी एक स्त्री की तरह।            हर पुरुष में एक स्त्री अंश होता है और हर स्त्री में एक पुरुष अंश.....और ये दोनो एक दूसरे के साथ ही संपूर्ण होते है । दोनो ही ईश्वर की बेहतरीन कृति है । न कोई कम है न कोई ज्यादा... दोनो एक दूसरे के पूरक है। हमे बिल्कुल ऐसी ही व्यवस्था की जरुरत है....जहाँ सद्भाव हो समभाव हो, एक दूसरे के प्रति सम्मान हो। एक दूसरे से ऊपर जाने की जद्दोजहद में हम पूरी व्यवस्था ही बिगाड़ देंगे ।      महिला दिवस पर अपने ही मेल साथियों से उपहार प्राप्त करने वाली हम महिलाएं हर दिन को महिला दिवस मनाये जाने पर जोर देती है लेकिन तनिक ठहरिये और

विकल्प

विकल्प हमेशा ऐसा ही होता है जब चाहो  साथ रखो जब चाहो  नजरअंदाज करो प्रश्नपत्र में जब देखती थी ऐसा तो उस प्रश्न का औचित्य कभी समझ नहीं पायी जो सरल होता था उसका चयन कर लिया जाता था और दूसरे को  कठिन समझकर नजरअंदाज अब भी जब अपने आइपेड की डिजिटल की पैलेट में  रंगों के सैकड़ों विकल्प देखती हूँ मैं उलझ जाती हूँ उनमे और अधिक.... और बेहतर.... और खूबसूरत.... जबकि कागज पर  अपनी रंगों की छोटी सी पैलेट में भी सिर्फ तीन या चार रंगों के समायोजन से मै दुनिया रंग देती हूँ फिर अक्सर सोचती हूँ विकल्प ही ना हो तो ?  वो कहावत है न कम सामान सफ़र आसान बिल्कुल ऐसा ही है ज्यादा विकल्प ज्यादा उलझन  बस..... अब मैं विकल्पों को नहीं तलाशती क्योकि.... जो प्राप्त है वही पर्याप्त है 

दो सितारें

मेरे आसमां में दो सितारें रहते है जो , हर पल मुझ पर नजर रखते है जब खुश होती हूँ तो वो भी , कुछ अधिक चमकीले होकर टिमटिमाते है जब कुछ उदास होती हूँ तो अपनी छावं तले मुझे सहलाते है मेरे दर्द को मरहम का लेप लगाते है वो सितारें हर क्षण मेरे साथ रहते है मैं बेफ़िक्री को जीती हूँ वो हरदम मेरी परवाह में रहते है मेरा आसमान रोशन है इन दो तारों से अब चाँद न भी हो तो  कोई गम नहीं...... ये दोनो मेरे सूरज चाँद से कम नहीं  ये घनघोर अंधेरी राहो पर  झिलमिलाती उम्मीद का वो छोर है जो सदा मेरे साथ है ये छोर हमेशा जुड़ा रहेगा, जोड़ता रहेगा ये बुनता है विश्वास को  अटूट साथ को जो न होकर भी होने में है ये दोनो सितारे मेरी माँ है 

भय

भय एक हल्की सी रेखा है  इस पार ओर उस पार के बीच की भय छुपा बैठा है खुशी के उस पारावार में जो सुचक है आने वाले तुफ़ान का भय एक पदचाप है धीमी सी जो....सुकून चुराकर आहिस्ते से अपनी जड़े फैलाता है बिल्कुल ऐसे जैसे आत्मीयता की भट्टी पर धीमी आँच में पकता प्रेम है ये भय प्रेम पर भी भारी है भय, स्क्रीन पर पॉपअप हुआ एक मैसेज है भय, डिलीट किये नम्बर से अचानक आया इनकमिंग कॉल है भय, आधीरात की फोनरिंग है भय, हर वक्त पीछा करती नजरों सा है भय, सूख चुकी आँखों की लाल धारीयों के जालों में फंसा सा है भय विश्वास को तार तार कर तोड़ता सा है भय हर चीज से बड़ा होता सा है भय....भय....भय क्या इस भय के पार जीत है ?

अवसाद

अवसाद.....जो मस्तिष्क की नहीं मन की बीमारी है, जो पागलपन नहीं मन की एक अवस्था है । जिसे दवाइयों से अधिक एक साथ की जरुरत होती है, हालांकि गंभीरता को देखते हुए दवाइयां अधिक कारगर होती है, लेकिन इसे हौव्वा बनाकर नहीं देखना चाहिए।       हम सब किसी न किसी वक्त मानसिक असंतुलन के दौर से निकले होते है और ऐसा भी नहीं है कि यह असफलता से निकल कर आता है .....ये बड़े गर्व से किसी की सफलता के साथ भी चुपके से प्रवेश कर जाता है और ऐसे में सोसायटी आश्चर्य करती है कि अरे इतने समझदार सफल व्यक्ति के जीवन में यह कैसे घटित हुआ.....बस, हमे जरुरत है इन आश्चर्यचकित बरौनियां चढ़े चेहरों को दरकिनार करने की । अवसाद, मन की एक अस्थायी अवस्था है जो हममे से किसी के भी जीवन में यकायक आ सकती है। हम कारण ढ़ूंढ़ने में लगे रहते है और निदान मुश्किल हो जाता है ।       कई बार यह दबी इच्छाओं का आकलन होता है तो कई बार एक भावुक मन का अपराधबोध..... यह किसी भी काम की अति हो सकता है....यह जीवन की एकरसता हो सकता है.......यह निहायत कंफर्ट जोन हो सकता है.....यह अत्यधिक खुशी भी हो सकता है......यह किसी पर निर्भरता हो सकता है ...यह आसक्ति ह

जीवन यात्रा

लगभग दस दिन अपने गाँव में गुजार कर अब हम फिर से चिकने चौड़े चमकते सड़क मार्ग से अपने शहर की ओर है।शानदार नेशनल हाईवे पर आवागमन पहले जैसा ही है, ट्रैफिक भी हमेशा की तरह ही है और हर तरह की छोटी बड़ी गाड़ी सड़क को चिपकती हुई सी कभी आगे स्पीड में निकल जाती है तो कभी किसी को आगे निकल जाने देती है। बड़े ट्रक भी इन सब के साथ ताल मिला रहे है। यहाँ जो धीरे चल रहा है वो साइड में होकर पीछे तेज गति से आ रहे वाहन को आगे निकलने देता है। कोई भी किसी का रास्ता रोकता नहीं है....सब अपनी अपनी गति में चले जा रहे है। देखा जाये तो यह कितनी सुंदर और संतुलित बात है और इसी वजह से आवागमन सुचारू रूप से चालु है।           सोच कर देखिये अगर यही बात जीवन में भी लागु हो जाये तो कितना अच्छा हो। जिसकी गति तेज हो , उसे हम आगे बढ़ने जगह दे दे । कोई हमसे आगे निकल जाये तो हमे हर्ट न हो। बिना ईगो बीच में लाये हम साइड में हो जाये। अगर हमारी स्पीड अधिक है तो हमे भी आगे बढ़ने से रोका न जाये । कोई किसी की राह में रुकावट न बने। सबकी स्पीड अनुसार उन्हे जगह और सम्मान मिले।  सबको यह क्लियर रहे कि हमेशा हम ही आगे या सबसे पहले नहीं रहने वाल

भाषा इशारों की

बात लॉकडाउन से पहले की है....मैं कुछ जरुरी शॉपिंग करने बेटी के साथ मॉल गयी थी। बेटी को कॉलेज जाना था इसलिये हमने तुरतफूरत सब लिया और बिलिंग काउंटर पर आ खड़े हुए । हमारे काउंटर पर एक दिव्यांग लड़की थी जिसने सामान का बिल बनाया और साइन लैंग्वेज में पेमेंट मोड पूछा। मैंने कार्ड दिखा दिया, उसने कार्ड लेकर स्वाईप किया और मुझे एक ऑफर के बारे में बताया या बताने की कोशिश की। मुझे कुछ समझ नहीं आया, बस, इतना समझा कि वो किसी ऑफर के बारे में बता रही है और उसे मेम्बरशिप नम्बर देना है । मैंने रजिस्टर्ड फोन नम्बर दिया जो मेरे हसबैंड का था। अब उसने मुझसे ओटीपी मांगा जो रजिस्टर्ड नम्बर पर आया । मैंने माफी मांगते हुए कहा कि मैं ये ऑफर बाद में देख लूंगी क्योकि बेटी को कॉलेज जाना था। इतना सुनकर वो मुझे और अधिक तरीके से समझाने लगी । मुझे अहसास हुआ कि शायद मैं सही तरीके से समझ नहीं पा रही हूँ। मुझे ग्लानि भी हुई पर समय की कमी की वजह से मै 'फिर कभी' कहकर निकल आयी। निकलते वक्त मैंने उसके उदास चेहरे को देखा। निसंदेह उसकी समझाईश में कमी नहीं थी, कमी मुझमे थी जो मैं उसकी भाषा समझ नहीं पा रही थी।       घर आक

पचास में पाँच कम

कल मैं पूरे 45 साल की हो गयी....पचास में बस पाँच कम। खुब चहक चहक कर अपना जन्मदिन मनाया। पता नहीं ये कैसा उत्साह होता है जो इस दिन मुझे चढ़ा रहता है और आज जैसे हैंगओवर बर्थडे का।            कल से शिद्दत से महसूस कर रही कि ये तन है जो उम्र की गिनती जोड़ रहा बाकी मन तो आज भी अठखेलियां ही कर रहा। मेरा मन कभी मानता ही नहीं इन बंधनों को। अक्सर हम लोग मन को मारकर उम्र के नम्बरों के हिसाब से व्यवहार करने लगते है जो कतई व्यवहारिक नहीं है। मैं ऐसा भी नहीं कहती कि हमे बचकानी हरकतों को बढ़ावा देना चाहिए। वक्त के साथ हमारी सोच विकसित होती है वो स्वाभाविक है लेकिन उम्र के लबादे को ओढ़कर सोचना तर्कसंगत नहीं।        आप की उम्र चाहे जो हो, उसे स्वीकार करे , झूर्रिया दिखती है तो दिखने दे, छुपाये नहीं ...ये तो श्रृंगार है प्रकृति का, सहज ही सजने दे। घुटने का दर्द भी उम्र का अहसास करायेगा....इट्स ओके....हड्डियां चटखेगी...चटखने दे, संगीत है कमजोर होते शरीर का, लेकिन मन ....वो तो निर्बाध है, उन्मुक्त है ....वहाँ न सिलवटे है, न झूर्रियां,न दर्द...वो सिर्फ उड़ना जानता है , वहाँ सिर्फ जीवन संगीत है । ये जो मन होता

न कदापि खंडित:

न कदापि खंडित ऐसा नहीं है कि , मैं कभी टूटती नहीं इंसान हूँ फौलाद नहीं खंड खंड बिखरती हूँ लेकिन फिर कण कण निखरती हूँ और कहती हूँ खुद से न कदापि खंडित क्योकि  खंडित तो ईश्वर भी नहीं पूजे जाते निष्कासित कर दिये जाते है अपने ही घर से प्रवाहित कर दिये जाते है बहती धार में फिर मैं तो इंसान हूँ  जीवन की मझधार में हर बार अपने वजूद के प्रवाह के पहले मुझे जुड़ना होता है खुद पतवार बनना होता है  ये सच है कि, मैं खंडित होती हूँ कुछ बातों से, जज्बातों से आपदाओं से, विपदाओं से लेकिन ठीक उसी वक्त मुझे ईश्वर की खंडित प्रतिमा किसी मंदिर के आँगन में एक कोने में रखी मिलती है या फिर दिखती है नदी के साथ सागर समागम को जाती हुई मुझे न अपना निष्कासन चाहिये ना ही मंजूर मुझे अपना विसर्जन बस.... अपने टुकड़ों को समेटती हूँ पहले से मजबूत जुड़ती हूँ और कहती हूँ जब तक प्राणों में सांस है न कदापि खंडित:

वो कमरा

दिसम्बर 2019 की एक सुबह.....उस सुबह किसने सोचा था कि आज से पूरे तीन महीने बाद एक कहर बरपने वाला है, सब तो बिंदास बेपरवाह घूम रहे थे । मैं भी घुमक्कड़ी पर ही थी।      सुबह सुबह शिलोंग से निकले और गुवाहाटी पहूँचे। दो दिन का स्टे था वहां पर । पहले दिन माँ कामाख्या के दर्शन और कुछ साईट सीन करने के बाद दूसरे पूरे दिन चिल्ल करने का प्लान था हमारा।        दोपहर पहले हम हमारे होटल में पहूँच गये। शिलोंग की तरह यह होटल भी मार्केट में था और बहुत ही खूबसूरत सज्जा के साथ था। रिशेप्शन पर औपचारिकता पूरी करने के बाद वेटर हमे हमारे कमरे तक लेकर आया जो कि दूसरी मंजिल पर  बांयी और था । उसने कमरा खोला, हमारा लगेज रखा और अभिवादन कर चला गया। मैं पीछे पीछे थी, जैसे ही मैंने कमरे में पावं रखा...मुझे लगा एक हवा का झौका सा मुझसे होकर गुजर गया। खैर....मैंने ध्यान नहीं दिया और कमरे को देखा।          कमरा बहुत बड़ा था....लगभग दो औसत कमरों से भी बड़ा। बाथरुम से लगकर थोड़ा ड्रैसिंग ऐरिया भी था और उसके पास एक और दरवाजा था जिसे मैंने खोलकर देखा। वो एक छोटी सी बालकनी जैसा था, जिसे बालकनी न कहकर पिछवाड़ा कहे तो ज्यादा उचित ह

खरे लोग

लगभग साल डेढ़ साल पहले की बात है, मैंने इंस्टा पर एक नया अकाउंट बनाया था । आत्मविश्वासी महिलाओं , क्रियेटिव ज्वैलरी और हैंडलूम साड़ीयों को यहाँ मैं फॉलो किया करती थी। रोज कुछ नया तलाशती रहती थी। ऐसे में एक दिन स्क्रॉल करते हुए नजरे ठहर गयी.....चाँदी की ज्वैलरी का एक बड़ा पेज । खुबसूरत शब्दों में ढ़ली ज्वैलरी और ज्वैलरी भी ऐसी कि हर पीस मन को भा जाये। मैंने तीन पीस सलेक्ट कर मंगाये।  उनके आने पर मैंने पिक क्लिक कर पोस्ट डाली....पिक में मेरे हाथ का टेटू था। ज्वैलरी के साथ टेटू की भी तारीफ हुई । फिर बात आयी गयी हुई ।              एक दो बार पेज की ऑनर दिव्या से थोड़ी बहुत बात हुई । एक उच्च स्तरीय व्यक्तित्व और एक माँ के रुप में वो मुझे बहुत पसंद आयी। पता नहीं क्यो, बच्चों की परवरिश के तौर तरीकों को देखते हुए मैं अक्सर उन माँओं से प्रभावित होती हूँ तो मदरहुड एंजोय करती है ....दिव्या उन्ही चुनिंदा लोगो में से एक है । खैर....हमारी बात थोड़ी और हुई, मेरी कला और शब्दों ने कही न कही दिव्या को छूआ। दिव्या को मेरा पेननेम "आत्ममुग्धा" बहुत पसंद आया और उसने कहा कि मैं इस नाम का कुछ बनाऊँगी और पह

पेंटिंग के पीछे की कहानी - 2

अब शुरु हुआ एक सपने पर काम....एक ऐसा सपना जो शायद गैरजरुरी सा था । जिसके पूरे होने न होने से कोई बड़ा फर्क न पड़ने वाला था,लेकिन मन बड़ा उत्साहित था भीतर से । ऐसा भी नहीं था कि ये बनाना आसान था लेकिन हाँ इतना मुश्किल भी न था। मुझे खुद पर यकीन था कि भले अच्छा न बने पर बिगड़ेगा नहीं।        बस...शुरुआत हो गयी , रंगों का समायोजन पहले से ही दिमाग में था। बुद्ध को उकेरने किसी रिफ्रैंस इमेज की भी जरुरत नहीं थी, उनकी छवि भी दिमाग में थी।          जब पहली बार पेंसिल से बनाया, तब समझ में ही नहीं आया कि आँखे छोटी बड़ी है ....नाक की लंबाई कम है , होठ बीचोबीच नहीं है। सबसे बेकार बात यह थी कि मैं पोट्रेट को दूर से नहीं देख सकती थी क्योकि यह सीढियों की दीवार थी। नजदीक से कुछ भी पता नहीं लग रहा था और थोड़ा साइड से देखने पर ऐंगल ही अलग हो जाता था। अजीब कश्मकश थी....इसे सही तरीके से पूरा कैसे करूँ, लेकिन इसके पहले मैंने एक बात सीखी कि ज्यादा नजदीक से आप किसी को भी परख नहीं सकते, थोड़ा दूर जायेंगे तो हर चीज साफ नजर आने लगती है, वो कहते है न कि अपने घर की छत से आप अपना घर नहीं देख सकते। अपना घर देखन

पेंटिंग के पीछे की कहानी - 1

ग्यारहवीं या बारहवीं कक्षा में रही होऊँगी मैं, जब मैंने पहली बार ऑयल पेंटिंग बनायी थी .....कैनवास मिलता नहीं था आस पास जल्दी से, तो हार्डबोर्ड पर ही बनाया था। मुझे अच्छे से याद है वो मैडोना का चेहरा था, बड़ा सा चेहरा। लगभग दो ढ़ाई फुट जितना। उसके बाद मैंने कई और भी पेंटिंग्स बनायी, खास बात यह थी कि सब दो फुट से बड़ी ही बनायी । मुझे बड़ा मजा आता था बड़ी बड़ी पेंटिंग्स बनाने में। कोई क्लासेज हमारे शहर में उस वक्त थी नहीं तो हर दूसरी पेंटिंग से खुद ही सीखती गयी।             कुछ समय बाद शादी हो गयी । रंगों से साथ छूट गया, ऐसा नहीं कहूँगी क्योकि रंग तो जिंदगी का हिस्सा होते है। समझ लीजिये कि जिंदगी की पिच बदल गयी थी, खिलाड़ी वही था। एक लंबा वक्त निकल गया। बच्चें हो गये और मैं गृहस्थी में रम गयी ।               बच्चे बड़े हो गये और मुझमे कही एक उत्सुकता जगने लगी बच्चों सी। ऑयल की जगह एक्रिलिक रंगों को देखा,तेल की जगह पानी के साथ मिक्सिंग को देखा। एक नयी तरह की चित्रकारी को देखा। रौनक धैर्य के साथ सब करता और मैं बच्चों सी अधीरता से सब देखती ।             फिर जीवन में एक बिछोह आया , कुछ लोग कहते है कि

देवीस्वरूपा

एक ताजातरीन मुद्दा इन दिनों मीडिया पर छाया है । सरकारें फिर से एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रही है। बुद्धिजीवी बहस कर रहे है । मजदूरों के पलायन से सभी का थोड़ा ध्यान भटका है और यह  मुद्दा है एक मादा हाथी और उसके अजन्मे बच्चे की मृत्यु या हत्या का । नि:संदेह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है यह । जघन्य अपराध है किसी मुक को यूँ उत्पीड़न देना । यह दर्द बाकी सभी लोगो की तरह मेरे भीतर भी दौड़ गया था । जैसाकि हर बार होता है कोई भी दर्द या खुशी मैं भीतर जमा करके नहीं रख सकती , उसे बाहर निकलना ही होता है कभी शब्दों में तो कभी चित्रों में। बहुत से लोग इस तरह से अपना रोष, खुशी, दुख जाहिर करते है। मैंने भी चित्र बनाया पर पता नहीं क्यो एक टीस सी मन में बाकी रह गयी।          हालांकि यह कृत्य क्षमायोग्य है ही नहीं लेकिन मेरा ध्यान इससे हटकर था। नहीं जानती कि अपने मन के भावों को समझा भी पाऊँगी कि नहीं ।            बचपन से ही कहानियों में पढ़ा था कि अक्सर  राजा किसी  मुजरिम को सजा देने के लिये उसे पागल हाथी के साथ छोड़ देते थे । या फिर कभी कभी हाथी क्रोध में आपा खो देते थे और अपनी ही देखभाल करने वाले महावत को

मन:स्थिति

कठपुतली है वो लोग जो गुलाम है क्षण प्रतिक्षण बदलती  अपनी ही मन:स्थिति के तुम प्रयास करना  एक स्थिर मन:स्थिति का उन्माद, क्रोध, संवेग और भय में ये तुम पर हावी हो जाती है तुम अडिग रहना गर डगमगा भी जाओ तो थाम लेना उसे जिससे तुम बने है तुम्हारी अपनी प्रकृति तुम्हारा अपना वजूद जो खो सकता है खुद को इन क्षणिक आवेगों के तहत तुम्हे पता है ज्ञानयोग में स्वामीजी कहते है कि हमारी आत्मा की भी  एक अन्तरात्मा होती है वही सत्य होती है तुम उसका आवरण  कभी किसी के सामने मत खोलना तुम्हारे अलावा  कोई नहीं जान पायेगा उसे लेकिन  मुद्दा ये है  कि तुम उसे कितना जानते हो ?  अगर तुम जान गये  तो फिर तुम मन:स्थिति के नहीं बल्कि मन:स्थिति तुम्हारी गुलाम होगी

उत्थान

जब हम किसी भी तरह की परेशानी में होते है तो उस वक्त हमे और अधिक कलात्मक या रचनात्मक हो जाना चाहिये। रचनात्मकता से मेरा तात्पर्य किसी विशेष उपलब्धि से नही है । कोई भी साधारण सा काम, जिसे आपने मन से किया , बस,वो रचनात्मक है और कलात्मक भी।  ये सभी साधारण काम आपको असाधारण रुप से मजबूत करेंगे ।कभी कभी  जब इन साधारण से कामों पर आपकी पीठ थपथपाई जायेगी तो वो अपने आप में अद्भुत होगा , आपका मनोबल इतना अधिक बढ़ जायेगा कि तकलीफे हाथ छुड़ाकर भाग जायेगी।              हर तरह का वो काम करे जो आपको तृप्ति दे और उससे मिलने वाली प्रशंसाओं को सहेजे । वे कतई आपके घमंड की विषयवस्तु नहीं है , बल्कि ये प्रशंसापत्र तो दस्तावेज़ है आपके अपने उत्थान के। आपके हर आगे बढ़ते कदम का मार्ग प्रशस्त करते है ये शब्द। बस, शब्दों के मर्म को पहचानने की समझ रखे । औपचारिकता और आत्मिकता के भेद को खंगालते हुए बना डालिये पुलिंदा इन भावों का, शब्दों का।                 आंनद महसूस करते हुए जीते रहे जिंदगी। कोई न भी बने तो खुद अपना मनोबल बने और टूटने न दे खुद को। भले ही समय विकट है पर यह आपको एक दिशा दे रहा है ....आयाम दे रहा है । इस ज

अव्यवस्था

इस लॉकडाउन में कोविड के अलावा जो विषय सबसे गरम रहा वो है मजदूरों का पलायन। मीडिया ने जमकर भुनाया इसे । पक्ष विपक्ष दोनों ने खूब सियासत की। अपने अपने राजसमर्थन के हिसाब से प्रजा ने भी कही मदद की, कही सहानुभूति दिखायी तो कही अव्यवस्था का जिम्मेदार बताया।            खूब चर्चाएं हुई, पावं की दरारों से होकर घर के रास्ते दिखाये गये, भुख दिखायी गयी , विलाप दिखाया, रुदन दिखाया, सूखे होठ दिखाये तो गीली आँखे भी दिखायी । ऐसी खबरे न्यूज का हिस्सा बन चुकी है , हालांकि अब तक एक बड़ा तबका अपने अपने क्षेत्र में पहूँच चुका है ।                जब ये लोग पलायन कर रहे थे तो खूब अव्यवस्था हुई... लेकिन इस अव्यवस्था के लिये, सिर्फ इन्हे जिम्मेदार ठहराना कतई उचित नहीं। हालांकि समझदार तबका घर में बैठकर इनसे व्यवस्था बनाये रखने की गुहार लगा रहा था । सभ्य भाषा में इनसे संयमित रहने को कहा जा रहा था । लेकिन ये मजदूर वर्ग है जनाब, ये समझता कहा है? इन्होने कभी अपनी समझ की थाह ही नहीं ली और लेते भी कब ? हमेशा तो रोटी की जुगाड़ में रहे।        संयम और व्यवस्था तभी कायम रहती है जब तन मन दोनो संतुलित हो । एक भुखा इंसान सं

चुनौतियां

मैं सुनती हूँ अपने अंदर  बेचैन कर देने वाली चुनौतियां जो जीवन की उत्कृष्ट राह की ओर धकेलती है मुझे परिचय कराती है अपने ही एक भिन्न अक्स से ये चुनौतियां  मेरी नींदे उड़ा देती है लेकिन मुझे पसंद है इनसे जूझना मै खेलती हूँ  इनके साथ सीसो वाला गेम कभी चुनौतियां मुझ पर भारी तो कभी मैं उन पर भारी कभी कभी हम दोनो संतुलन भी बना लेते है पर मैं शुक्रगुज़ार हूँ इनकी इनके बिना मैं 'मैं' नहीं देखा जाये तो बिना चुनौती जीवन भी तो कुछ नहीं 

पानी के बुलबुलें

उसके शरीर के कुछ हिस्सों में पानी के बुलबुले से उठ आये थे हाँ.... शायद पानी के ही, उस पानी में समाये थे कुछ जज्बात कुछ भाव कुछ थी, बांधे गये  आँसुओं की धार कुछ छींटे उसमे क्रोध के भी थे जो कभी व्यक्त न हो सके एक नीला सा आवरण हलाहल का भी था जो जज्ब कर लिया था उसने  भीतर ही भीतर बुलबुलों में उफान आता रहा वो तरल थे, स्निग्ध थे पर न जाने क्यो एक प्रक्रिया के तहत चट्टान हो गये अब पीड़ा पहूँचाने लगे है क्या उसे काटकर अलग कर देना चाहिये ? या फिर एक मौका देना चाहिये वो सोचती है कि  इस पत्थर से  एक पौधा पल्लवित होना ही चाहिये हाँ....वो सहला रही है उस चट्टान को नन्ही पत्तियों वाला  एक विशाल वृक्ष उगेगा वहाँ चट्टान उर्वरक हो जायेगी शरीर का हिस्सा बन जायेगी 

फ्रीडा

बात लगभग साल भर पहले कि है....मेरा पावं टूटा था। यूँ तो मेरे साथ छोटी मोटी टूटफूट अक्सर होती रहती है लेकिन ये पहली बार था कि मेरे पावं में एक महीने के लिये प्लास्टर चढ़ा दिया गया और लगभग अपाहिज की तरह मुझे एक कोने में बैठा दिया गया। मैं पूरी तरह से किसी ओर पर निर्भर थी ....हर छोटे मोटे काम के लिये मुझे किसी की सहायता लगने लगी। आस पास सब बिखरा रहता और मैं उसे समेट पाने में असमर्थ रहती। शुरुआती एक हफ्ता मैं बहुत चिड़चिड़ी सी रही,लेकिन जल्दी ही मैं इस टूटे पावं को एंजॉय करने लगी । निर्भरता आत्मनिर्भरता का फर्क मेरे उन अपनों ने मिटा दिया जिन पर मैं निर्भर थी।       जब आपका भीतर कुछ टूटता है तो अक्सर बाहर तक भी दरारें दिखने लगती है लेकिन खुशकिस्मत रही कि अंदर भी दरार मात्र थी और बाहर सब व्यवस्थित। मुझे इतने बेहतर तरीके से संभाला गया कि मैं अपने टूटे पावं के साथ एक अलग ही दुनियां रचने लगी....अपने रंगों और चित्रों के माध्यम से। मेरे पास भरपूर वक्त था और मैंने उस वक्त को इतना संक्षिप्त कर दिया कि दिन के चौबीस घंटे कम लगने लगे। मेरी लगन और कार्यक्षमता ने उस दौरान मुझे मजबूत किया। किसी भी कांधों ने

वो लड़की

वो फूल बिखेरती लड़की बहारों के मौसम सी लड़की अपनी उम्र से कही  अधिक समझदार वो लड़की अपने मन के बच्चे को जीवंत रखती चंचल सी वो लड़की अपनी दोस्ती के रंगों से दुनिया रंगीन बनाती वो लड़की धूप हो छावं जीवन की हर डगर चहकती सी वो लड़की नाम जिसका रेखा पर रेखाओं में कहाँ सिमटती वो लड़की रेखाओं को पारकर सोचने समझने वाली वो लड़की जिंदगी के हर नुक्कड़ पर यूँ ही मुस्कुराती रहे वो लड़की

गांठें

सुना है तनाव शरीर में गांठें बना देता है  तो क्यो न कुछ विपरीत किया जाये चलो खुश रहा जाये और  तन मन की गांठों को पिघलाया जाये 

मन का घाट

जलती चिता हूँ या हवन हूँ उन हवन पर सजी देहों का मैं ही हविष्य हूँ महाश्मशान मे सीखाती बैराग हूँ दिन रात जलती आग हूँ मृत्यु का मौन हूँ मोक्ष का द्वार हूँ हाँ, मैं मणिकर्णिका हूँ गंगा में मिलती राख हूँ  मैं निर्वाण गति हूँ जन्म जन्मांतर की घुमावदार राह का हाँ ...मैं अंत हूँ मन के घाट पर ढ़ूंढ़ती कर्णफूल हूँ 

रिक्त हाथ

मै रिक्त हाथ हूँ अपने खेत खलिहान छोड़ कुछ अधिक की लालसा पाल मै छोड़ आया था अपने गाँव की पगडंडी रम गया था  इस चिकनी सड़क की चमक में सबसे ऊँची मंजिल पर  स्लेब डालते हुए आसमाँ से बातें करने लगा था प्लास्टर करते हुए चिकने मार्बल पर हाथ सहला लेता था चमकती दुनिया की चकाचौंध में  मेरी भी तरक्की के आसार थे मेरे भी बच्चों के ख्वाब़ थे गाँव के आँगन वाले मकान ने भी एक और मंजिल का सपना पाल लिया था अपने कांधों पर सभी सपनों का बोझ मैंने रख लिया था लेकिन अब सिर्फ एक राह है उन सपनों की जो मेरे गाँव की पगडण्डी की ओर है मैं नहीं जानता मैं इस सड़क की ओर कभी लौटूंगा भी  कि नहीं मैं नहीं जानता कि मेरा भी दिन मनाया जाता है हाँ, मैं मजदूर हूँ आज के दिन मुझे मनाया जाता है लेकिन आज मैं रिक्त हाथ हूँ आँखों में सपनें नहीं है अपनी छूट चुकी पगडंडी की तलाश है

उभरी आँखों वाला वो

इरफान.....      न जाने क्यो , तुम्हारा चेहरा हटाये हट नहीं रहा। ऐसा भी नहीं है कि मैंने तुम्हारी हर एक फिल्म देखी हो या देखने की तमन्ना रही हो लेकिन हाँ जो भी देखी .....देखने के बाद दो दिन तक तुम मेरे जेहन में हमेशा रहा ।            आज जब तुम्हारे जाने का पता लगा तो एक बारगी दिल धक्क से रह गया और लगा जैसे कोई करीबी हाथ छोड़कर चला गया। तुम्हारे यूँ जाने और इतने शिद्दत से रह जाने से इतना तो यकीन हुआ कि दिलों में जगह तुम जैसे लोग बना सकते है। आज मेरे कॉंटेक्ट के लगभग सभी लोगो के स्टेटस में तुम हो। देखो, कितने करीब थे तुम सभी के।  मन रोने जैसा है लेकिन सामान्यतया मैं रो नहीं पाती इसलिये मैंने दर्द निकाला तुम्हारा स्कैच बनाकर। जब मैं तुम्हारी आँखें बना रही थी तो जैसे मेरे हाथ काँप गये। उन उभरी हुई आँखों में न जाने कितने मौन संवाद तैर रहे थे। तुम्हारी आँखे न जाने किस नशे में रहती थी ....हर बार...हर फिल्म, जो मैंने देखी....हर संवाद...और संवाद क्यो, तुम्हारी आँखों को तो कभी संवाद की जरुरत ही न पड़ी। आज तुम्हे उकेरते हुए मैंने तुम्हारी आँखों के दर्द, बेबसी, क्रोध की अदायगी को एक साथ द

विदा

वो जो चला गया अब लौटेगा नहीं अलविदा हमेशा तकलीफ़देह होता है नहीं आसान होता किसी को जाने देना विदा का कोई सहज नियम क्यूं नहीं होता? क्यो विदा हमेशा भारी होती है ? क्यो नहीं प्रस्थान आसान होता ? क्यो पंचतत्व का विलय इतना कठिन होता है? विदा के आगे पूरा जीवन पूरा शब्दकोश पूरी उपमाएं पूरी सृष्टी हल्की लगने लगती है

मास्क

सुनो मुस्कुरा न सको तो चलेगा पर मास्क पहन कर रखना उसके पीछे  तुम हँसे, न हँसे किसे फर्क पड़ता लेकिन हाँ आँखों में एक चमक कायम रखना अब तुम आँखों से मुस्कुराना क्योकि एक लंबे वक्त के लिये  तुम्हारी हँसी बोझिल होने वाली है  इस मास्क के तले आँखों के चराग़ जरुरी है मास्क पहनना भी जरुरी है 

एक चिठ्ठी

कैसी हो जाने जानां,? अच्छी ही होगी मैं भी यहाँ ठीक हूँ ।।आजकल तो आप तरस गयी होंगी,नयी नयी साड़ी पहनने को। सही है यार मुझे जलना नहीं पड़ेगा। मुझे बड़ा मजा आ रहा है ये सोचकर कि मैं फोन करूँगी तो यह नहीं सुनना पड़ेगा" चल तेरको आके फोन लगाती मूवी देखनै जा रही ठीक है 'चल बाय"  कितना बंद बंद है ना सबकुछ।  पर यहाँ ऐसा कुछ नहीं है। तुम्हारे वहाँ मुम्बई में तो कोरोना के बहुत केस मिल रहे हैं। अपना ध्यान रखना । अपने यहाँ तो लोग बाग खूब घूम रहे हैं। ये मुम्बई थोड़े ना है, छोटा सा शहर है , और फिर गेहूँ बाड़ी के दिन हैं उन्हीं का काम चल रहा है तो लोगों को कोरोना डे मनाने का वक्त ही नहीं मिल रहा। माँ के पास गई थी। तुम भी होती तो दोनूं जन लिफाफा ले के खेत में चलते। अरे बहुत शहतूत लगे थे, तुम्हारी तो हाइट की दिक्कत बी नहीं। तुम डाल पकड़ नीचे खींचती, मैं तोड़ लेती। फिर वहीं पेड़ के नीचे बैठकर खाते। इन दिन बाग भी उजड़ गए। तुम क्या जानो बाग उजड़ना बागों को खुला छोड़ देते हैं आखिरी फलों के वक्त , कोई आओ कोई खाओ। हम दोनों साथ होती तो खूब सूखी दाख इकट्ठा कहती।।  नाली पर पुदीना हरा हो चुका  ।  त

आकाशगंगा

मेरे मन की आकाशगंगा में ऐसे हजारों तारें टिमटिमाते है जिनका पता किसी को नहीं मैं पहचानती हूँ एक एक तारें को मुझे बस उन्ही का ज्ञान है उन्ही की समझ है बाकी बातों में मैं अज्ञानी हूँ समझदारी की भी कमी है पर परवाह नहीं गूगल मुझे सब बता देता है सब समझा देता है उसकी सूचनाएं सटीक होती है उसकी पहुँच दुनिया की  सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तरंग तक है सिवाय उन तारों के जो मेरे मन की आकाशगंगा में है 

बहादूर बच्चे

कितना मुश्किल होता है एक पराये शहर में खूद को समेटना अपनों को याद करना और  सब ठीक होने की उम्मीद करना भविष्य का सोच चिंतित होना घर आने के ख्वाब बुनना मन को समझाना राशन पानी की गिनती करना अजनबी से बादलों को ताकना माँ के भेजे सूरज से खूद को गरम रखना बरतन माँजना, खाना बनाना और  उस खाने को दो दिन तक खाना सुबह शाम विडियो कॉलिंग करना नाश्ते की प्लेट में रात का खाना सजा कर दिखाना सुनो मेरे बच्चों..... तुम सब बहादुर हो डरना मत, हौसले बनाये रखना अपने सपनों को जवान बनाये रखना यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं है ये वक्त ये दौर भी क्षणभंगुर है बस, ये क्षण  द्रोपदी के चीर सा खिंच गया है पर यकीन मानो इसका भी अंत होगा जीवन की एक नयी परिभाषा के साथ हम सब फिर से शुरुआत करेंगे तब तक तुम डटे रहो  गिरती अर्थव्यवस्था की चिंता भी मत करो तुम्हारी माँओं की दुआएं ऊँची से ऊँची अर्थव्यवस्था पर भारी है तुम घर लौटोगे मुस्कुराते हुए तब तक इंतजार हम सबकी नियती है स्थिर रहकर ईश्वर पर  विश्वास बनाये रखो

काबिले तारीफ- ओडिशा

किचन में काम करते हुए हमेशा बुद्धूबक्से की आवाजे मेरे कान में जाती रहती है। इन दिनों हालांकि मैं ज्यादा ध्यान देती नहीं क्योकि खबरों को अक्सर बढ़ा चढ़ा कर बताया जाता है और विकृत राजनीति परोसी जाती है,लेकिन कल एक छोटी सी डॉक्यूमेंट्री मुझे सुखद कर गयी।        सच्चाई जानने के लिये मैंने गुगल भी किया और पाया कि बात में दम था। खैर .....खबर थी सुदूर प्रांत ओडिशा की । ओडिशा में कोरोना को लेकर जो कदम उठाये गये या उठाये जा रहे है , वो वाकई काबिलेतारीफ है।  1. ओडिशा पहला ऐसा राज्य है देश का जिसने देशव्यापी लॉकडाउन के दो दिन पहले से लॉकडाउन लगा दिया । 2. ओडिशा पहला ऐसा राज्य है जहाँ दो सप्ताह में 500 बैड के दो अस्पतालों का निर्माण कोविड 19 वायरस के इफेक्टेड लोगों के लिये बनाया गया जबकि वहाँ उस वक्त इस वायरस ने पाँव भी न पसारे थे। एक महीने के कम अंतराल में ओडिशा सरकार ने अलग अलग जिलों में 29 कोविड अस्पताल बना लिये है और निश्चित ही यह एक बड़ी कामयाबी है उनकी। 3. ओडिशा पहला ऐसा राज्य है जिसने लॉकडाउन 2 की घोषणा के पहले ही अपना लॉकडाउन पूरे अप्रेल माह तक बढ़ा दिया था । 4. ओडिशा सरकार ने डॉक्टर्स् और इस

किताबें

मैंने बहुत अधिक किताबें नहीं पढ़ी पर मैंने थोड़ी थोड़ी  बहुत सी किताबें पढ़ी है मैं दोहराकर पढ़ती हूँ आगे जाती हूँ फिर पीछे आती हूँ एक एक पंक्ति को कई कई बार पढ़ती हूँ शब्दों पर अटकती बहुत हूँ क्लिष्ट भाषा मुझे समझ नहीं आती लेकिन फिर भी  मुझे हर किताब प्रिय है मुझे अपनी पाठ्य पुस्तकों से भी प्यार था किताबें आपकी दौलत होती है जिन पर धूल जमती रहती है आप झाड़ते रहते है  उन्हे महफूज रखते है  उस वक्त के लिये जब आपके तन्हा लम्हें  लंबे हो जायेगे तब ये किताबे मुस्कुरायेगी सहेजा धन विकट समय बड़ा काम आता है किताबों को सहेजिये  इन्हे धरोहर बनाईये 

पृथ्वी

आहिस्ता आहिस्ता  मैं सिसकती रही तुम्हारे अहंकार के बोझ को ढ़ोती रही तुम्हारी मनमर्जियों तले  घुटती रही अपना सब तुम पर लुटाती रही तुम्हारा पेट पालती रही तुम्हे हर कदम संभालती रही पर तुम न जाने किस मद में रहे किस उन्माद में रहे शुक्रगुजार होना तो दूर तुम तो अपनी आँखे तरेरते रहे लेकिन अब वक्त आ गया बहुत पोषित किया तुम्हे अब खूद को बचाना है  हम दोनो अब ऋणी नहीं तुम खूद को बचाओ मैं खूद को बचाती हूँ मैं पृथ्वी हूँ तुम्हारी संवेदनाओं असंवेदनाओ से आहत अब मैं अपनी धूरी पर  खूद में केंद्रित हूँ हाँ.....अब मैं ध्यान में हूँ  जो बिगाड़ा तुमने उसके परिष्कार में हूँ 

उदास शाम

आज फूल कुछ उदास से है पतझड़ नहीं है, फिर भी पीले पत्ते मुझ पर गिर रहे है फूल खुशबू बिखेर रहे है पर अनमने से है नहीं.... नहीं फूल उदास नहीं है ये तो उदास मन की व्यथा है जो हर जगह उदासी को देखता है लेकिन जानता है मन इन उदासियों में सच में फूल खिलेंगे बस, कुछ दिनों की बात है तब तक उदास शामों को रोशन रखते है 

पापी पेट

उसे डर नहीं उस  सुक्ष्मजीवी का जिससे डरकर पूरी दुनिया चार दीवारी में कैद है उसे नहीं पता कि संक्रमण कैसे होता है उसकी आँखें चिंताग्रस्त है होठ सूख गये है चेहरा जैसे सुखाग्रस्त क्षेत्र हो उसके मासूम बच्चे  अब भी खिलखिलाते है लेकिन उसके कान जैसे बहरे हो गये हो वो बेबस इतना है कि बगावत नहीं कर सकता वो समाज का वो तबका है जो इन दिनों  अपने आधार को लेकर असमंजस में है वो मजदूर वर्ग है जो मातम में है उसे फिक्र है अपनी नवविवाहिता की  जिसे कितने सपने दिखाकर  वो अपने साथ लाया था उसे फिक्र है  अपने बच्चे की , जिसका मुडंन होना अभी बाकी है उसे फिक्र है अपनी माँ की जो घर में उसकी चिंता में बीमार है उसे फिक्र है अपने पिता की जिन्हे वो जिम्मेदारी से मुक्त कर आया था उसे फिक्र है पापी पेट की जो तीनों वक्त खाना मांगता है उसे वक्त नहीं है  उस सुक्ष्मजीवी के बारे में सोचने का उसे वक्त नहीं है राजनीति करने का उसे वक्त नहीं है  बेघर रहकर इंतजार करने का ना उसे भूत का ख्याल है ना भविष्य से कोई आशा उसे इतना पता है  कुछ बड़ी अनहोनी हो सकती है उसके पहले वो अपनों के पास जाना चाहता है वो बताना चाहता है  सभी घरों में

सहेजे लोग

पता है छूटे लोग छूटा वक्त छूटी चीजें कभी छूटती ही नहीं है हम बस भ्रम में रहते है हर छूटाव पोषित होता रहता है कभी दिल के किसी कोने में तो कभी दिमाग की किसी नस में  और वो सहेजे रहते है आखरी साँस तक

गर्भगृह

मुझे अंधेरों से डर नहीं लगता मुझे सन्नाटों का भी खौफ़ नहीं उष्णता मुझे तरबतर नहीं करती आपदाओं से मैं घबराती नहीं काल कोठरी सी एक छोटी जगह जहाँ रोशनी की महीन किरण तक नहीं मुझे पर्याप्त है क्योकि मैं उसे समझ लेती हूँ माँ का गर्भगृह जहाँ कुछ समय मुझे रहना है जीवन पाकर बाहर आना है ईश्वर अभी भी रच रहा है मुझे उसकी रचना पर सवाल नहीं संदेह नहीं

माँ

मैंने तुम्हारा दाह संस्कार नहीं देखा अंतिम यात्रा भी नहीं देखी लेकिन मैंने देखा था तुम्हे अंतिम बार चिर निद्रा में लीन थी तुम शांत थी, निश्छल थी नये कपड़ों से तुम्हारा मोह कभी नहीं रहा पर उस दिन तुम्हे नयी चटख लाल चुनरी में सहेजा गया  सिंदूर ,बिंदी भी कहाँ भाते थे तुम्हे पर उस दिन  सिंदूर दमक रहा था मांग में एक सुरज सुशोभित था तुम्हारे ललाट पर और तुम मुस्कुरा भी तो रही थी न जाने क्यो ? माँ कभी हँसती है .... अपने बच्चों को रोता देखकर ? पर तुम तटस्थ बनी रही एक चुड़ी पहनने वाली तुम उस दिन कलाई भरकर चुड़िया तुम्हे पहनायी गयी जीवन भर तुम्हे जिन सब का मोह नहीं था तुम्हे विदा किया गया  उन्ही सब के साथ सब घटित हो रहा था  शायद तिथि पुण्यतिथि में तब्दील हो रही थी  तुम चली गयी मेरा एक हिस्सा साथ ले गयी अपने मन के भिक्षु का एक हिस्सा मुझे दे गयी बस.....पिछले छ: सालों से हम यूँ ही साथ है 

साँसें

ध्यान से सुनो एकदम ध्यान से चित्त स्थिर करके सुनो कुछ साँसों की आवाजें है भीतर जाती हुई बाहर आती हुई पिछले कई दिनों से  मेरे साथ है ये आवाज लेकिन ये मेरी साँसें तो नहीं है ये तो लम्बी सी जीवन भरती साँसें है ये सुकून वाली साँसें है ये खुशी वाली साँसें है जब कही किसी पेड़ पर कोई पत्ता हिलता है तो ये साँस अंदर जाती है जब कही कोई चिड़िया  चहचहाती है तो ये साँस बाहर आती है इस साँस की आवाजाही से आसमान नीला हो जाता है पेड़ और लंबे हो जाते है पत्ता पत्ता सुर्ख हो जाता है मोर खुश होकर नाचने लगता है मछलियां उचक कर  पानी से बाहर झांक जाती है ये कमाल है इन साँसों का सुनो तुम..... हमारी पृथ्वी साँस ले रही है 

तुम जीना

मेरे मन की रौनकें तुमसे है पल में खिलती, पल में मूरझाती है अडिग रखना विश्वास ईश्वर की तरह न टूटना कभी न टूटने देना ये आते जाते समय की मार है जो निखारेगी तुम्हे, तपायेगी तुम्हे इनसे पार जाना है...स्थिर रह डटे रहना मेरी उर्जा से नहीं,  खूद की उर्जा से जीना तुम महसूस करोगे तो सामीप्य पाओगे तुम अकेले नहीं हो,हम साथ है हमेशा मेरा हाथ तुम्हारे हाथ में नहीं है इन सबके बीच तुम्हे थमना नहीं है एक लंबी दूरी तुम्हे तय करनी है जीवन संभावनाओं का नाम है, बच्चे  आस्थाओं और भावों के बहाव में  तुम शिखर पर रहना संवेदनाओं को मुखर रखना असंवेदनशीलता मृत्यु समान है विकट समय इसका परीक्षा काल है उर्तीण होना तुम और जीना मुस्कुरा कर जीना

प्रार्थनाएं

इन दिनों टीवी पर दिखाये जा रहे और व्हाट्सएप पर वायरल हो रहे विडियों को देख रही हूँ, जिनमें एक जन सैलाब उमड़ता दिखाया जा रहा है। इस जन सैलाब में कुछ छोटे बच्चें है जो खेलते कुदते चले जा रहे है , कुछ इतने छोटे है जो किलक रहे है अपनी माँओं की गोद में, कुछ नवविवाहित से पति पत्नी है जो नयी दुनिया बसाने शायद शहर आये थे,अब सब समेट फिर से गाँव जा रहे है, कुछ अधेड़ से है जो बूरी तरह से ध्वंस दिख रहे है और भागे जा रहे है भरे पूरे परिवार को लेकर, कुछ नौजवान से है जिनके सिर पर बोझे है, कंधों पर भी सामान है, निराश से है। ये सारा जन सैलाब आज उसी पगडण्डी की ओर जा रहा है जिस पगडण्डी से होते हुए ये इस शहर वाली सड़क पर आ गये थे। एक विडियों में इन लोगों से पुछा गया कि पैदल कब तक चलोगे तो वे कहते है कि गूगल मैप बता रहा है कि छ: दिन में अपने गाँव पहूँच जायेंगे । मुझे उसका जवाब निशब्द कर गया...न जाने इन्हे कितने कितने किलोमीटर तक जाना है, साथ में बुजुर्ग है, महिलाएं है, बच्चें है ।       लॉकडाउन के इस वक्त में इतनी भीड़ देखकर हम सभी अपने घरों में बैठे लोग चिंतित है कि ऐसे हम कैसे कोरोना को भगा पायेंगे , लॉकडाउन

अमृता और इमरोज़

ऐसा नहीं है कि वो कही गयी बातों को सच मान बैठती है, खासतौर पर प्रशंसा में कही गयी बातें। वो जमीनी हकिकत को जानती है लेकिन उसकी कल्पनाओं का संसार इतना बड़ा है कि वो एक बात कि उंगली थाम न जाने कहाँ कहाँ विचरण कर आती है। वो सच झूठ की कसौटी में नहीं उलझती, कहे गये शब्दों में भी नहीं उलझती और ना ही किसी शब्द पर आँख मूंदकर विश्वास करती है। उसकी अपनी कसौटियां है, इसीलिये वो आत्ममुग्धा है । वो नहीं जानती कि ये घमंड है या ऐसा कुछ जो किसी का नूर बन जाता है लेकिन कोई है जो इसे घमंड बताता है। वो हर शब्द से अर्थ निकालती है....गहन विश्लेषण करती है। उसकी कल्पनाओं का यह संसार कलात्मकता का एक मेला है जिसे रचती है वो अपने ही रंगों, अर्थों और बातों से। अपनी ही बातें उसे कभी कभी आत्मज्ञान की तरह लगती है। उसकी अपनी अनुभूतियाँ उसे विभोर करती है। वो हर बात में अनुभूति को जीती है।        आज जब किसी ने कहा कि "तुम अमृता भी हो और इमरोज भी" तो वो मुस्कुरा उठी, क्योकि वो कभी कभी खूद को ही कहती रही है कि "मैं इमरोज़ बनना पसंद करूँगी"। उसे इमरोज़ बहुत पसंद है। हजारों कारण है उसके पास उसको पसंद करने

इक्कीस दिन

मैं आभारी हूँ आपकी आभारी हूँ आपके लिये निर्णयों की आप पर विश्वास हमेशा से रहा है अब ये अधिक सुदृढ़ हुआ है असंभव सा जो दिखता था आपने उसे संभव कर दिखाया दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इतना बड़ा जन सैलाब उसे थामना उसे समेटना कतई आसान न था बल्कि सोचना भी मुश्किल था आपने बड़ी सूझबूझ से  इक्कीस दिनों का चैलेंज सामने रखा न जाने ये 21 दिन  कितने भारतीयों की आदत बदल देगा कहते है ना कि एक नयी आदत परिपक्व होने में 21 दिन लेती है  तो आप लहर लाये है बदलाव की देश को बचाने के ये इक्कीस दिन वाकई इतिहास में लिखे जायेंगे  आपके इस फैसले से आपके व्यक्तित्व की दृढ़ता परिलक्षित होती है नमन है, नतमस्तक है पूरा देश आपके आगे इस वैश्विक महामारी के संकटकाल में आपका यूँ निर्णय लेना  एक बहुत बड़ी बात है पूरे  देश को लॉकडाउन करना ऐतिहासिक है सही वक्त पर सही निर्णय  मैं दिल से आभारी हूँ पुरा देश आभारी है  आपकी जनता आपके साथ है विकसीत देशों के पास  बेहतरीन चिकित्सीय टीम और संसाधन है लेकिन हमारे पास आप है  शुक्रिया आपका  आपके भाषण के बाद मैंने अपने बेटे को यूएस में फोन लगाया जहाँ उसने भी आपको लाईव देखा  मैंने गर्व से कहा....म

बस दो हफ्ते

महामारी के मायने हम सभी समझते है तथाकथित समझदार लोग जो है हम। पिछले कुछ दिनों से स्कुल ,कॉलेज, मॉल, थियेटर सब बंद है । इस बंद के क्या मायने है....यही कि हम लोग एक साथ एक जगह भीड़ के रुप में इकठ्ठा न हो, फिर भी हममे से ही कुछ लोग इकठ्ठे हो रहे है। कभी थोड़ी देर टहलने के बहाने, वर्कआउट के बहाने, राशन लाने के बहाने। बड़े बजूर्गों का घर में दम घूट रहा है । बाहर हैंगआउट कर चिल्ल करने वाली नयी पीढ़ी हाथ में सैनिटाईजर लगा कर इसे हल्के में ले रही है ।       हमारे प्रधानमंत्री मोदीजी ने जनता कर्फ्यू का आवहान किया जिसे शत प्रतिशत सफलता मिल रही है और लोग पूरे मनोयोग से साथ दे रहे है और इंतजार कर रहे है पाँच बजे का । निसंदेह मैं भी कर रही हूँ.....मैंने जब विडियों में इटलीवासीयों का यह जज्बा देखा तो उस वक्त भी विभोरता में मेरी आँखे नम पड़ गयी थी। आज शाम जब हम उन विभोर क्षणों को साथ मिलकर जीयेंगे तो वो अलग ही आनंददायक अनुभूति होगी। एक सकारात्मकता पूरे ब्रह्मांड में छा जायेगी । इस सकारात्मकता को हमे कम से कम दो हफ्तों तक बनाये रखना है । हमे उत्सव नहीं मनाना है....ना ही हमे जंग जीतने वाली फीलिंग की जरुरत ह

सुबह सुबह

बड़ी खूबसूरत सुबह !  सुबह के 8:50 हो चुके है, सुरज धीमे धीमे से चढ़ा जा रहा है। मेरे ड्रॉईंग रुम में शांति से धूप पसरी पड़ी है। खिड़कियां आज बेखौफ खुली है सभी कमरों की, क्योकि  होर्न और आवाजाही का शोरगुल नहीं है । हाँ....पक्षीयों का कलरव लागातार बना हुआ है । पंखें की आवाज भी साफ सुन रही हूँ। पड़ौस की बिल्डिंग में शायद कोई पूजा कर रहा है, उस पूजाघर से आती घंटी की आवाज सुन पा रही हूँ । कूकर की सीटी तो खैर रोज ही लगभग हर घर से सुनने मिलती है पर आज ये थोड़े विलम्ब से बज रही है। अब मैं कह दूँ कि दाल के तड़के की खुशबू मेरी खिड़की से आ रही है तो अतिश्योक्ति होगी, क्योकि ये मुम्बई है जनाब। ये अलसुबह अपने काम की ओर भागती है पर अब जबकि काम घर पर रहकर किये जा रहे है ,तो अब ये मुम्बई,कम से कस आधी मुम्बई नींद में है। ये दिन रात भागता शहर है...इसका थमना , ठिठकना बहुत बड़ी बात है । शहर के व्यस्ततम इलाके में रहने की वजह से ये शांति कुछ अनोखा सा महसूस करा रही है । न जाने कितनी ही आवाजें रोज के शोरगुल में दब जाती थी, आज साफ सुनायी दे रही है । सड़क पर सन्नाटा है। सड़के भी आज सुकून से सोयी है , उन पर कोई पदचाप भी नह

जनता कर्फ्यू

जनता कर्फ़्यू जनता का,जनता के लिये एक संकल्प संक्रमण के खिलाफ परीक्षा खूद के संयम की  सब साथ आये, सहयोग दे आभार की करतल ध्वनी से  गुंजायमान आकाश करे थाली बजाये शाम पाँच बजे पूरी सामुहिकता से सिर्फ एक दिन नहीं दो हफ्तों तक ध्यान रखे बेवजह बाहर न निकले अंदर रहकर खंगाले खूद को भीतर से 

न जाने क्या क्या देखा

फूल को खिलते देखा परिंदों को उड़ते देखा कुछ ख़्वाबों को मुस्कुराते देखा देखा जमीं को आसमां से मिलते हुए देखा कुछ बच्चों को खिलखिलाते हुए झूर्रियों से झांकते बचपन को देखा धीमे सधे कदमों को देखा दौड़ती भागती जिंदगी में....मैंने ठहरे से कुछ नौजवानों को देखा चाँद को चमकते देखा सूरज को जलते देखा आकाश को कभी नीला कभी लाल तो कभी काला होते देखा चिनार के पत्ते को लाल होते देखा देवदार की ऊँचाइयों को छूकर देखा विशाल पहाड़ों को मैंने बाहें फैलाये देखा पतझड़ को जाते देखा बसंत को आते देखा बूढ़े पेड़ों पर मैंने फिर से यौवन दमकते देखा मैंने देखा लम्हों को छूटते देखा समय को रेत की तरह फिसलते झरनों को गिरते देखा नदी को बहते देखा समंदर को मोंक की तरह देखा कभी उग्र तो कभी शांत देखा मैंने एक गरम फुलका देखा थाली में परोसी धनिये की चटनी को देखा अपने गिलास में मीठे पानी को देखा दाल के पास सजे आम के अचार को देखा महकती खुशबू के साथ भोजन को पकते देखा आँखों में शरबती मिठास को देखा देखा मैंने उन्ही आँखों में नमक को भी बहते हुए हँसने पर फूल कैसे झरते है,मैंने ये भी देखा शोक देखा, श्मशान देखा मृत्यु बाद का मंजर भी देखा अक

वो लड़की

एक चंचल सी लड़की जिसका सेंस ऑफ ह्यूमर गजब है जिसकी स्याही से निकले शब्द न जाने कितनों के आँसू है जो मिट्टी की महक अपनी कविताओं में भर देती है जो छूट गयी बातों के बीज सबके मनों में बो देती है एक लड़की जो सिर्फ लिखती नहीं है एक जीवन सामने रख देती है सरल सहज शब्दों में कठिनता को परोस देती है एक लड़की जो अनुभव गहन रखती है डिग्रियों से परे वो  खूद में एक महाविद्यालय रखती है वो लड़की मेरी दोस्त है वो मुझसे दुराव नहीं रखती वो अपने आप को झरती है मेरे आगे वो लड़की जो मुझसे छोटी है मुझसे कहती है  जब माँ याद आये मुझे माँ बुला लेना वो लड़की मुझे मैसेज करती है दो मिनिट बात करनी है और बिना मेरे जवाब का इंतजार किये फोन कर लेती है अगर मैं व्यस्त हूँ  तो वाकई दो मिनिट का तीसरा नहीं होता और जब वक्त हो तो  दो मिनिट कब साठ मिनिट हो गया पता भी न चलता वो लड़की  जो अधिकार देती है अधिकार लेती है रोज बात नहीं करती पर अपने दिल के एक कोने में मुझे बसा कर रखती है जन्मदिन मुबारक यारा

कोरोना वायरस

कोरोना..... एक सूक्ष्म वायरस इतना सूक्ष्म कि देखा भी न जा सके लेकिन इस सूक्ष्मता का खौफ बड़ा आज से पहले जिसे देखा नहीं, सुना नहीं, जाना नहीं उसका भय बड़ा भयभीत है पूरी दुनिया कोरोना से कांप रहा कोना कोना चुपके से आकर ये जीवन को आयाम दे रहा मन की चंचलता को  विराम दे रहा एकाकीपन को एकांत बना रहा आइसोलेशन के बहाने  ठहराव ला रहा खूद को खूद तक सीमित रखे कोरोना ये बता रहा हाथ जोड़ अभिवादन करे बेवजह क्यू किसी को स्पर्श करे सांसों पर ध्यान दे बाधित है कुछ सांसें  तो एकांत में बैठ कुछ मनन करे गहरे निश्वास के साथ हर व्याधि दूर करे अकेलापन आनंद है कोरोनो यही समझा रहा बस, इसे जीना सीखे कोरोना की माने तो मनोरंजन बहुत हुआ दौड़ती भागती इस दुनिया में... तेरा भागना बहुत हुआ तनिक विश्राम ले, ठहर रे बंदे स्थिर मन से, थोड़ा सुस्ता अपने ही घर में कभी ऑफिस, कभी होटल,  कभी पार्टी , कभी मीटिंग  इस कभी कभी में कभी मिला तू खूद से ?  कहता कोरोना....देख रे इंसान देख अपने ही घर की दीवारे बाहें फैलाये ये तुझे बुलाये याद रख एक ईकाई है तू एकाकी है तू अकेला है तू तू ही तेरा साथ निभाये बस ये मंत्र तू जान ले मैं चला जाऊँगा इ

अर्द्धशतक

50 पूरे हो गये तुम्हारे जीवन का एक सुनहरा हिस्सा अर्द्ध शतक के रुप में तुम्हारे साथ है तुम्हारे साथ है तुम्हारी कामयाबियां जो भले ही बहुत ऊँची न हो बेहद शानदार न हो लेकिन मुझे सातवें आसमां पर  बैठाने के लिये वो पर्याप्त है  वो पर्याप्त है  तुम्हारे आगे के जीवन के लिये ताकि जब भी पीछे मुड़कर देखो तो गर्व कर सको खुद पर तुम्हारे साथ के मेरे झगड़े तुम्हारा क्षणभंगुर गुस्सा  बहुत तुच्छ है.... उस अपार स्नेह और प्यार के आगे जो मैंने तुमसे पाया है तुम्हारे मन की सह्रदयता, सरलता मुझे हमेशा तुम पर गर्व महसूस कराती है बच्चों जैसी निश्छलता और तो और जन्मदिन मनाने का बच्चों सा उत्साह तुम्हारे बच्चों को भी तुम पर मोहित कर देता है हम सब चाहते है तुम हमेशा ऐसे ही रहना तुम मेरे कल्पवृक्ष हो जिसकी छाया में मैं पल्लवित होती हूँ तुम बरगद हो मेरे और मैं ..... उस बरगद की शाख से झूलती लता सी मेरे हिस्से तुम्हारे सारे किस्से अपनी रोशनी तुम मुझे देते हो दमकती मैं हूँ.... तालियां मुझे मिलती है  तुम दूर से मुस्कुराते हो चुपचाप मुझे निहारते हो मैं नहीं जानती सात जन्मों का बंधन क्या है लेकिन ये जन्म सार्थक है तुम्हार

नदी का बांध हो जाना

क्या आपने किसी नदी को बांध बनते हुए उसके बदलाव को महसूस किया है । मैंने महसूस किया है और देखा है ।  कुछ सालों पहले अपनी सिक्किम यात्रा के दौरान जब हम 'घुम' से 'पीलिंग' को जा रहे थे और हमारे साथ साथ चल रही थी नदी तिस्ता । मनमोहक रास्ता और तिस्ता का साथ, जैसे सब कुछ जादुई हो गया था। तिस्ता की चंचलता मेरा मन मोह रही थी और मुझे ऐसे लग रहा था जैसे उसने हमारा दामन पकड़ लिया हो ।एक पल को वह ओझल हो जाती तो दुसरे ही पल फिर से अपनी मस्ती के साथ हमसे मिलने आ जाती । कही कही उसकी लहरें उग्र रुप से खतरनाक थी तो कही शांत पर थोड़ी सी चचंल,लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गये यह गंभीर होती गयी और फिर आगे चलकर यह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गयी । मेरी उत्सुकता बढ़ गयी । मैंने ड्राईवर से इस बारे में पुछा तो उसने बताया कि यहाँ पर बाँध बनाया गया है इसलिये यह यहाँ रुक गयी है । एक बारगी मुझे लगा जैसे किसी चचंल से बच्चें के हाथ ही बांध दिये गये हो ।निःसंदेह मुझे तिस्ता की चचंल लहरों की कमी खल रही थी और उसकी स्वतंत्रता का हनन मुझे कदापि पसंद नहीं आया ।       माना कि बांध मनुष्य विकास का ही एक हिस्सा

चमकीली आँखों वाली लड़की

उसे हिंदी की गहन समझ नहीं मुझे अंग्रेजी का ज्ञान नहीं फासला उम्र का भी भरपूर दोनो ही मगरुर वो आजाद ख़्याल....बेबाक बिंदास वो लिसनर बेहतरीन वो पूरी मुम्बईया न जाने कैसे मुझसे जुड़ी कौनसे तार कहाँ टकराये मुझमे न जाने क्या वो पाये संताप अपना झर दिया मेरे लिखे से खूद को जोड़ लिया  कुछ शब्दों पर शायद वो अटकती फिर भी हर भाव वो समझती उसकी आँखे सब बयां करती चुपचाप वो कुछ मोती छलकाती बिना सिसकियों दर्द वो बहाती वो खुशमिजाज सी लड़की बिना गला भर्राए आँखों से सब कह जाती मेरे हर लिखे पर  उसकी झड़ी  न जाने मुझे कहाँ ले गयी जिस भाव में जो जो लिखा वो हुबहू उसकी आत्मा तक पहूँचा चमकीली आँखों वाली वो लड़की भीगी पलकें दिखा गयी रोका नहीं कोरों के पानी को उसने मुस्कुराते हुए बेबाक छलका गयी वो प्यारी सी लड़की मोतियों से मुझे सराबोर कर गयी पहली मुलाकात में मालामाल कर गयी  

नीलकंठ

सुनो नीलकंठ बिल्कुल तुम्हारी तरह मैंने भी विष को  गले में  उतार रखा हैं ह्रदय तक नहीं उतरने देती और बिल्कुल तुम्हारी ही तरह एक तीसरा नेत्र मेरे पास भी हैं जिससे देखती हूँ मैं  हलाहल को और  महसूस करती हूँ उसके आघात को उसकी तीव्रता को इसलिये उसे पी कर तुम्हारी तरह ही धारण कर  लेती हूँ तुम भी गले से  नीचे नहीं उतारते और .....मैं भी क्योकि तुम्हारी अमरता और  मेरी जीवन्तता हमे ऐसा  करने नहीं देती ।

नीली आभा

नफ़रत से भरे तुम्हारे कड़वे शब्दों को कुरेद कर स्नेह से सींच अमृत समझ धारण कर लिया सदा सदा के लिये उगलो तो ज़हर निगलो तो ज़हर इसलिये सजा लिया बिल्कुल नीलकंठ की तरह अपने कंठ में अब ये नीली सी आभा मेरे कंठ की 

मैं होना चाहती हूँ

मैं 'मैं' होना चाहती हूँ दूर कही जाकर  खूद में रमना चाहती हूँ घने जंगल में जाकर पत्तों की सरसराहट....और झींगुर को सुनना चाहती हूँ समंदर के अकेलेपन और खारेपन को महसूसना चाहती हूँ टूटते तारे को देख बहुत मांगी मन्नत अब उसे टूटने से बचाना चाहती हूँ उस राह पर दौड़ना चाहती हूँ जिसकी कोई मंजिल नहीं उस सफर को जीना चाहती हूँ जिसका कोई मुकाम नहीं रिश्तें नाते और संबोधनों से दूर एक जिंदगी चाहती हूँ हाँ......कुछ वक्त के लिये मैं सिर्फ़ 'मैं' होना चाहती हूँ 

माँ हूँ तुम्हारी

 चाहती हूँ मैं  कि मेरी खुशियाँ तुम्हे लग जाये  और , तुम्हारे दुखों को मैं अपना लू  आँख में आये आंसू तुम्हारे  तो अपनी पलकों में सहेज लू  कही मिले ना आसरा तुझे  तो अपने आँचल में समेट लू  हंसो जब तुम  तो तुम्हारी मुस्कुराहट को गले लगा लू  जब ख़ुशी से चमके तुम्हारी आँखे  तो उसे अपनी कामयाबी बना लू  गलत राह भी ग़र चलो तुम  तो वो राह भी तुम्हे चुनने ना दूँ  क्योकि ; माँ हूँ तुम्हारी  चाहती हूँ तुम्हे परिपूर्ण देखना