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जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मित्रता

रावण मुस्कुराते हुए बोला,                                        "राम, मैं सिर्फ महादेव के प्रति ही मित्रता के भाव से भरा हुआ हूँ । महादेव के अलावा किसी भी अन्य का मेरे मित्रभाव में प्रवेश निषिद्ध है, फिर वह भले ही महादेव को ही क्यो न प्रिय हो इसलिये तुम्हे कभी भी रावण की मित्रता नहीं मिलती। मेरे निदान के लिये महादेव ने तुम्हारा चयन किया है राम,क्योंकि महादेव अपने इस अतिप्रिय शिष्य को मृत्यु नहीं, मुक्ति प्रदान करना चाहते हैं।" ये पंक्तियां आशुतोष राणा सर की लिखित किताब "रामराज्य" से है।  पिछले हफ्ते ही मैंने इस किताब को मंगाया है। सोचा था कि पूरी किताब पढ़ने के बाद कुछ लिखूँगी लेकिन पहला पृष्ठ पलटते ही उपरोक्त पंक्तियां पढ़ने मिली। रावण द्वारा कहे इन सुंदर शब्दों से मन विभोर हो गया। मित्रता की जो गहन गूढ़ बात यहां कही गयी है मैं उससे पूरी तरह सरोकार रखती हूँ। रावण कहते है कि उनके इष्ट महादेव के प्रति वे मित्रभाव रखते है और दूसरा कोई उसके समकक्ष आ भी नहीं सकता।        कितने अटल विश्वास से वह यह बात कह देते है और सच मानिये आपका सखा भाव सार्थक भी इसी तथ्य से होता है। मित

अनाहत

तुम्हारे ह्रदय में  स्थित है एक लौ जो अदृश्य है क्योकि तुम महसूस नहीं कर पाते उसे तुम्हारे संवेगो के चलते भय की गुंजन से बस वो एक अनवरत स्पंदन में है अनियंत्रित रुप से धड़कती  तुम्हारी धड़कने तुम्हे डरा देती है उस लौ को बुझा देती है छलनी है तुम्हारा ह्रदय  क्योकि ये आहत होता रहता है कभी सोचा है सीने के इस मध्य भाग को  अनाहत चक्र कहते है तो बस.... अब से मान जाओ कि  अनाहत को कोई आहत नहीं कर सकता व्यर्थ है तुम्हारा भय 

खुदी को बुलंद कर

कौन है जो इस जग में कभी हारा नहीं जीता वही जो हार कर भी थमा नहीं बहकते कदमों को साधकर ध्येय को ठानकर कमजोरियों को भांपकर परिस्थितियों को ढापंकर मुसीबतों को पार कर  तू बस जुड़ते जाना कौन है ऐसा जो कभी टुटा नहीं खूद पर विश्वास रख ना किसी से आस रख अपनी कथनी का करनी से मिलान कर जो चाहेगा वो पायेगा कौन है ऐसा जो अनचाहा कभी हुआ नहीं खुदी को बुलंद कर अडिग अपने हौसलें कर बेपरवाही छोड़कर  जी उनके लिये  जो जीते है तुझे देखकर कौन है ऐसा जिसने अपना कभी खोया नहीं जो छूट गया उसका मोह क्या पल जो खिसक गया  उसका गम क्या भ्रम से बाहर निकल कौन है जो इस जग में कभी छला नहीं जीवन को सम्मान दे स्वं को मान दे अभिमान है तू कितनों का  बस, कुछ चीजों को विराम दे