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न कदापि खंडित:

न कदापि खंडित ऐसा नहीं है कि , मैं कभी टूटती नहीं इंसान हूँ फौलाद नहीं खंड खंड बिखरती हूँ लेकिन फिर कण कण निखरती हूँ और कहती हूँ खुद से न कदापि खंडित क्योकि  खंडित तो ईश्वर भी नहीं पूजे जाते निष्कासित कर दिये जाते है अपने ही घर से प्रवाहित कर दिये जाते है बहती धार में फिर मैं तो इंसान हूँ  जीवन की मझधार में हर बार अपने वजूद के प्रवाह के पहले मुझे जुड़ना होता है खुद पतवार बनना होता है  ये सच है कि, मैं खंडित होती हूँ कुछ बातों से, जज्बातों से आपदाओं से, विपदाओं से लेकिन ठीक उसी वक्त मुझे ईश्वर की खंडित प्रतिमा किसी मंदिर के आँगन में एक कोने में रखी मिलती है या फिर दिखती है नदी के साथ सागर समागम को जाती हुई मुझे न अपना निष्कासन चाहिये ना ही मंजूर मुझे अपना विसर्जन बस.... अपने टुकड़ों को समेटती हूँ पहले से मजबूत जुड़ती हूँ और कहती हूँ जब तक प्राणों में सांस है न कदापि खंडित: