मैं राह ही देख रही थी कि पौने दस के करीब डोरबेल बजी..... मेरा अनुमान सही था,वो दुर्गा ही थी। मैंने देर से आने का कारण पुछा तो वही रोज की वजह.......माँ-बाप का झगड़ा और गंदी परवरिश से पिसते बच्चें। दुर्गा........ सोलह सत्रह साल की गोरी जवान और खुबसूरत सी लड़की, जो पिछले कुछ दिनों से मेरे घर काम करने आ रही थी। छ: बहन भाईयों में दुर्गा दुसरे नम्बर पर थी,पहले नम्बर पर एक आवारा भाई था जो तकरीबन पूरी तरह से बिगड़ चुका था। तीसरे नम्बर की बहन का नाम शारदा था जो की सातवीं कक्षा में पढ़ती थी, चौथे नम्बर का भाई छठी में था और दो छोटी बहनें जो अभी स्कुल नहीं जाती थी। एक बार दुर्गाष्टमी के दिन मैंने उसकी दोनो छोटी बहनों को खाने पर बुलाया था,वो दोनो इतनी सुंदर बच्चियाँ थी कि मैं मंत्र मुग्ध सी हो गयी....... भगवान ने चारों बहनों को रूप रंग देने में कोई कोर कसर ना रखी थी। दुर्गा ने दसवीं तक पढ़ाई की थी और अक्सर मुझसे कहती थी कि, "दीदी,मुझे आगे पढ़ना है, लेकिन मेरा बाप मुझे बीयर बार में काम करने को बोलता हैं।" मैं सकते में आ
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है