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बप्पा तुम्हे विदा

कुछ दिनों के तुम मेहमान बनकर आये दुखों को पार लगाने आये ढ़ोल नगाड़ों पर तुम नाचते आये पलक पांवड़ो पर बिछकर आये तुम आये खुशियों को साथ लेकर तुम आये उस उत्सव की तरह जिसके साथ साथ सब हर्ष आता इसीलिए तो कहते रिद्धि सिद्धि सुख संपत्ति के तुम दाता आज अंतिम दर्शन का दिन आया विर्सजन करते मन अकुलाया  लेकिन जाओगे तभी तो आओगे  आने जाने के इस जीवन में  विसर्जित होकर भी ह्रदय में रह जाओगे अगले बरस तक राह तकेगी आँखे तब तक तुम्हे विदा करते उड़ते अबीर गुलाल  और मेघ गर्जना के साथ बप्पा तुम्हे विदा 

एक संवाद

आज एक संवाद सुना ।  दो स्त्रियां.....जिनमे से एक बिल्कुल सधे शब्दों में कुछ पूछती है और दूसरी कभी खिलखिलाकर तो कभी रोतलू सी उनका जबाब देती है और कभी असमंजस में कहती है कि ' पता नहीं ' ।        संवाद था सुदीप्ति और अनुराधा के बीच । सुदीप्ति को मैं इंस्टाग्राम पर उनकी साड़ियों की वजह से जानती थी और हमेशा पढ़ती भी थी। अनुराधा को उसकी पहली किताब 'आजादी मेरा ब्रांड' के वक्त से जानती हूँ । तीखे नैन नक्श वाली निश्छल सी लड़की ,जो यकीनन वही है जो वो दिखती है और  खूबसूरत इतनी कि कोई भी मुग्ध हो जाये ।       संवाद एक बार शुरू हुआ तो पता ही न लगा कि कब समय गुजर गया।  दोनो ही नदियों की तरह.....सुदीप्ति जहाँ शांत बहाव वाली मन को सुकून देने वाली नदी तो वहीं अनुराधा ,चंचल हिलोरे लेती कलकल बहती नदी, जो अपनी बौछारों से आपको भिगो दे ।       सुदीप्ति जिस तरह से प्रश्न पूछती है ....उनकी आवाज का गांभीर्य और ठहराव उस प्रश्न को बातचीत बना देता है और यह वाकई एक कला है।  सामने वाला आपका दोस्त है, आपकी व्यक्तिगत जानपहचान है लेकिन एक सार्वजनिक मंच पर उस निजता को बनाये रखते हुए एक प्रवाहमयी संवाद को स

मन

कभी कभी मन डुबा सा रहता है कभी हिलोरे लेता  किसी पल सहम जाता  तो कभी कमल सा खिल जाता  कभी खारा हो जाता समंदर सा तो कभी नदी की मिठास सा कभी घनीभूत होता विचारों से तो कभी सांय सांय करता खाली अट्टालिका की तरह  कभी ध्वज सा लहराता किसी शिखर पर कभी जमीदोंज होता कोई कोना कभी शांत होता मंदिर के गर्भगृह सा तो कभी शोर मचाता सुनामी सा कभी कलकल बहता झरने सा तो कभी सब कुछ लीलता तुफान सा कभी परिचित सा तो कभी अजनबी अनजान सा मन है......... विरोधाभास के बीच  कहाँ खुद को जानने देता #आत्ममुग्धा