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अन्तर्मन की ओर

माना कि मुखरता स्वभाव है लेकिन कभी कभी इसे अंदर की ओर समेटना होता है अक्सर हम  बाहरी दुनिया में रमने लगते है लोगों को जानने समझने की चेष्टा में कही न कही खुद को समझ से परे कर देते है निकल जाते है दूर  एक ऐसी राह पर जहाँ जमावड़ा होता है तथाकथित अपनों का जहाँ हम सबको पाते है सिवाय खुद के खुद को भुलकर भी  मन संतुष्ट होता है  कि हम अपनों के बीच है लेकिन एक वक्त पर इस भ्रम को टूटना होता है अपनों पर आश्रित होने के बजाय हमे खुद को पुकारना होता है स्वयं को पाना होता है दूर गयी राह से लौट आना होता है खुद को भीतर ही भीतर समेटना होता है कछुए की भाँती एक खोल में, एक मजबूत खोल में.... अपने स्वं को स्थापित करना होता है हमे पाना होता है खुद को हमे अन्तर्मन की ओर मुखर होना होता है

उन्मुक्तता

मैं संपूर्ण नहीं थी पर मैं सही थी बहुत सी जगहों पर मेरा सही  तुम्हारे लिये गलत था तुम्हारा सही मेरे लिये गलत था सही, गलत नहीं हो पाया गलत, सही नहीं हो पाया और  हम खड़े रहे  अपने अपने छोर को पकड़े ना डोर तुमने छोड़ी ना डोर मैंने छोड़ी बंधी रही मैं कही न कही उसी छोर से लेकिन जानती हूँ मैं मुझे किनारे पर ही रहना है जब चाहूँ तब डोर छोड़ सकू मुझे डोर को पकड़कर  तुम तक आने की जरुरत नहीं अपनी उन्मुक्तता भी इतनी ही प्रिय है मुझे जितना कि तुमसे जुड़ा यह छोर