माना कि मुखरता स्वभाव है लेकिन कभी कभी इसे अंदर की ओर समेटना होता है अक्सर हम बाहरी दुनिया में रमने लगते है लोगों को जानने समझने की चेष्टा में कही न कही खुद को समझ से परे कर देते है निकल जाते है दूर एक ऐसी राह पर जहाँ जमावड़ा होता है तथाकथित अपनों का जहाँ हम सबको पाते है सिवाय खुद के खुद को भुलकर भी मन संतुष्ट होता है कि हम अपनों के बीच है लेकिन एक वक्त पर इस भ्रम को टूटना होता है अपनों पर आश्रित होने के बजाय हमे खुद को पुकारना होता है स्वयं को पाना होता है दूर गयी राह से लौट आना होता है खुद को भीतर ही भीतर समेटना होता है कछुए की भाँती एक खोल में, एक मजबूत खोल में.... अपने स्वं को स्थापित करना होता है हमे पाना होता है खुद को हमे अन्तर्मन की ओर मुखर होना होता है
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है