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मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

उत्थान

जब हम किसी भी तरह की परेशानी में होते है तो उस वक्त हमे और अधिक कलात्मक या रचनात्मक हो जाना चाहिये। रचनात्मकता से मेरा तात्पर्य किसी विशेष उपलब्धि से नही है । कोई भी साधारण सा काम, जिसे आपने मन से किया , बस,वो रचनात्मक है और कलात्मक भी।  ये सभी साधारण काम आपको असाधारण रुप से मजबूत करेंगे ।कभी कभी  जब इन साधारण से कामों पर आपकी पीठ थपथपाई जायेगी तो वो अपने आप में अद्भुत होगा , आपका मनोबल इतना अधिक बढ़ जायेगा कि तकलीफे हाथ छुड़ाकर भाग जायेगी।              हर तरह का वो काम करे जो आपको तृप्ति दे और उससे मिलने वाली प्रशंसाओं को सहेजे । वे कतई आपके घमंड की विषयवस्तु नहीं है , बल्कि ये प्रशंसापत्र तो दस्तावेज़ है आपके अपने उत्थान के। आपके हर आगे बढ़ते कदम का मार्ग प्रशस्त करते है ये शब्द। बस, शब्दों के मर्म को पहचानने की समझ रखे । औपचारिकता और आत्मिकता के भेद को खंगालते हुए बना डालिये पुलिंदा इन भावों का, शब्दों का।                 आंनद महसूस करते हुए जीते रहे जिंदगी। कोई न भी बने तो खुद अपना मनोबल बने और टूटने न दे खुद को। भले ही समय विकट है पर यह आपको एक दिशा दे रहा है ....आयाम दे रहा है । इस ज

अव्यवस्था

इस लॉकडाउन में कोविड के अलावा जो विषय सबसे गरम रहा वो है मजदूरों का पलायन। मीडिया ने जमकर भुनाया इसे । पक्ष विपक्ष दोनों ने खूब सियासत की। अपने अपने राजसमर्थन के हिसाब से प्रजा ने भी कही मदद की, कही सहानुभूति दिखायी तो कही अव्यवस्था का जिम्मेदार बताया।            खूब चर्चाएं हुई, पावं की दरारों से होकर घर के रास्ते दिखाये गये, भुख दिखायी गयी , विलाप दिखाया, रुदन दिखाया, सूखे होठ दिखाये तो गीली आँखे भी दिखायी । ऐसी खबरे न्यूज का हिस्सा बन चुकी है , हालांकि अब तक एक बड़ा तबका अपने अपने क्षेत्र में पहूँच चुका है ।                जब ये लोग पलायन कर रहे थे तो खूब अव्यवस्था हुई... लेकिन इस अव्यवस्था के लिये, सिर्फ इन्हे जिम्मेदार ठहराना कतई उचित नहीं। हालांकि समझदार तबका घर में बैठकर इनसे व्यवस्था बनाये रखने की गुहार लगा रहा था । सभ्य भाषा में इनसे संयमित रहने को कहा जा रहा था । लेकिन ये मजदूर वर्ग है जनाब, ये समझता कहा है? इन्होने कभी अपनी समझ की थाह ही नहीं ली और लेते भी कब ? हमेशा तो रोटी की जुगाड़ में रहे।        संयम और व्यवस्था तभी कायम रहती है जब तन मन दोनो संतुलित हो । एक भुखा इंसान सं

चुनौतियां

मैं सुनती हूँ अपने अंदर  बेचैन कर देने वाली चुनौतियां जो जीवन की उत्कृष्ट राह की ओर धकेलती है मुझे परिचय कराती है अपने ही एक भिन्न अक्स से ये चुनौतियां  मेरी नींदे उड़ा देती है लेकिन मुझे पसंद है इनसे जूझना मै खेलती हूँ  इनके साथ सीसो वाला गेम कभी चुनौतियां मुझ पर भारी तो कभी मैं उन पर भारी कभी कभी हम दोनो संतुलन भी बना लेते है पर मैं शुक्रगुज़ार हूँ इनकी इनके बिना मैं 'मैं' नहीं देखा जाये तो बिना चुनौती जीवन भी तो कुछ नहीं 

पानी के बुलबुलें

उसके शरीर के कुछ हिस्सों में पानी के बुलबुले से उठ आये थे हाँ.... शायद पानी के ही, उस पानी में समाये थे कुछ जज्बात कुछ भाव कुछ थी, बांधे गये  आँसुओं की धार कुछ छींटे उसमे क्रोध के भी थे जो कभी व्यक्त न हो सके एक नीला सा आवरण हलाहल का भी था जो जज्ब कर लिया था उसने  भीतर ही भीतर बुलबुलों में उफान आता रहा वो तरल थे, स्निग्ध थे पर न जाने क्यो एक प्रक्रिया के तहत चट्टान हो गये अब पीड़ा पहूँचाने लगे है क्या उसे काटकर अलग कर देना चाहिये ? या फिर एक मौका देना चाहिये वो सोचती है कि  इस पत्थर से  एक पौधा पल्लवित होना ही चाहिये हाँ....वो सहला रही है उस चट्टान को नन्ही पत्तियों वाला  एक विशाल वृक्ष उगेगा वहाँ चट्टान उर्वरक हो जायेगी शरीर का हिस्सा बन जायेगी 

फ्रीडा

बात लगभग साल भर पहले कि है....मेरा पावं टूटा था। यूँ तो मेरे साथ छोटी मोटी टूटफूट अक्सर होती रहती है लेकिन ये पहली बार था कि मेरे पावं में एक महीने के लिये प्लास्टर चढ़ा दिया गया और लगभग अपाहिज की तरह मुझे एक कोने में बैठा दिया गया। मैं पूरी तरह से किसी ओर पर निर्भर थी ....हर छोटे मोटे काम के लिये मुझे किसी की सहायता लगने लगी। आस पास सब बिखरा रहता और मैं उसे समेट पाने में असमर्थ रहती। शुरुआती एक हफ्ता मैं बहुत चिड़चिड़ी सी रही,लेकिन जल्दी ही मैं इस टूटे पावं को एंजॉय करने लगी । निर्भरता आत्मनिर्भरता का फर्क मेरे उन अपनों ने मिटा दिया जिन पर मैं निर्भर थी।       जब आपका भीतर कुछ टूटता है तो अक्सर बाहर तक भी दरारें दिखने लगती है लेकिन खुशकिस्मत रही कि अंदर भी दरार मात्र थी और बाहर सब व्यवस्थित। मुझे इतने बेहतर तरीके से संभाला गया कि मैं अपने टूटे पावं के साथ एक अलग ही दुनियां रचने लगी....अपने रंगों और चित्रों के माध्यम से। मेरे पास भरपूर वक्त था और मैंने उस वक्त को इतना संक्षिप्त कर दिया कि दिन के चौबीस घंटे कम लगने लगे। मेरी लगन और कार्यक्षमता ने उस दौरान मुझे मजबूत किया। किसी भी कांधों ने

वो लड़की

वो फूल बिखेरती लड़की बहारों के मौसम सी लड़की अपनी उम्र से कही  अधिक समझदार वो लड़की अपने मन के बच्चे को जीवंत रखती चंचल सी वो लड़की अपनी दोस्ती के रंगों से दुनिया रंगीन बनाती वो लड़की धूप हो छावं जीवन की हर डगर चहकती सी वो लड़की नाम जिसका रेखा पर रेखाओं में कहाँ सिमटती वो लड़की रेखाओं को पारकर सोचने समझने वाली वो लड़की जिंदगी के हर नुक्कड़ पर यूँ ही मुस्कुराती रहे वो लड़की

गांठें

सुना है तनाव शरीर में गांठें बना देता है  तो क्यो न कुछ विपरीत किया जाये चलो खुश रहा जाये और  तन मन की गांठों को पिघलाया जाये 

मन का घाट

जलती चिता हूँ या हवन हूँ उन हवन पर सजी देहों का मैं ही हविष्य हूँ महाश्मशान मे सीखाती बैराग हूँ दिन रात जलती आग हूँ मृत्यु का मौन हूँ मोक्ष का द्वार हूँ हाँ, मैं मणिकर्णिका हूँ गंगा में मिलती राख हूँ  मैं निर्वाण गति हूँ जन्म जन्मांतर की घुमावदार राह का हाँ ...मैं अंत हूँ मन के घाट पर ढ़ूंढ़ती कर्णफूल हूँ 

रिक्त हाथ

मै रिक्त हाथ हूँ अपने खेत खलिहान छोड़ कुछ अधिक की लालसा पाल मै छोड़ आया था अपने गाँव की पगडंडी रम गया था  इस चिकनी सड़क की चमक में सबसे ऊँची मंजिल पर  स्लेब डालते हुए आसमाँ से बातें करने लगा था प्लास्टर करते हुए चिकने मार्बल पर हाथ सहला लेता था चमकती दुनिया की चकाचौंध में  मेरी भी तरक्की के आसार थे मेरे भी बच्चों के ख्वाब़ थे गाँव के आँगन वाले मकान ने भी एक और मंजिल का सपना पाल लिया था अपने कांधों पर सभी सपनों का बोझ मैंने रख लिया था लेकिन अब सिर्फ एक राह है उन सपनों की जो मेरे गाँव की पगडण्डी की ओर है मैं नहीं जानता मैं इस सड़क की ओर कभी लौटूंगा भी  कि नहीं मैं नहीं जानता कि मेरा भी दिन मनाया जाता है हाँ, मैं मजदूर हूँ आज के दिन मुझे मनाया जाता है लेकिन आज मैं रिक्त हाथ हूँ आँखों में सपनें नहीं है अपनी छूट चुकी पगडंडी की तलाश है