सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जुलाई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैक्लोडगंज

मै अभी mcleodganj में हूँ ।मैक्लॉडगंज वह जगह है, जहां पर 1959 में बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा अपने हजारों अनुयाइयों के साथ तिब्बत से आकर बसे थे,इसी वजह से यह स्थान पूरे विश्व में प्रसिद्ध है और मुझे यह कहते हुए बहुत  फख्र महसूस हो रहा है कि बुद्ध धर्म के 14वें दलाई लामा का यहाँ आधिकारिक निवास स्थान है ।     कल से मैं यहाँ हर तरफ विदेशी सैलानियों को देख रही हूँ और सही पूछे तो वे सैलानी लग ही नहीं रहे, ऐसा लग रहा जैसे यही रच बस गये हो....... हम यहाँ की गलियों में थोड़ा घूमने निकले तो देखा कि ये विदेशी यहाँ की संस्कृति में जैसे पिरो दिये गये हो...... लंबी गोरी चिट्टी लड़कियाँ और लंबे बालों और दाढ़ी वाले लड़के ढ़ीले पाजामों में तंबूरा लटका कर चलते मिले तो कही दुकानों पर पालथी लगा कर कुछ गूर सीखते मिले...... कही रंगों का समायोजन कर रहे थे तो कही योग की जिज्ञासा में खोये।    यह देख कर मुझे अपनी समृद्ध आध्यात्मिक संस्कृति पर गर्व हो आया क्योकि विदेशों से ये सैलानी सिर्फ़ इसलिए यहां आते है कि वे यहां के आध्यात्मिक परिवेश को समझ सकें,और वे महीनो महीनो यहाँ रुके रहते है...... सोचिये, कैसी सम्माननी

गुरू

राजकुमार सिद्धार्थ ने जब महल छोड़ा था तो उन्हें एक गुरू की तलाश थी जो मुक्ति का मार्ग दिखा सके, और उन्होने दो आचार्यों आलार कालाम और उद्रक से आध्यात्मिक शिक्षा ली।  'अपदार्थता' (ध्यान साधना की उच्चतर अवस्था)   और 'पायतन समाधि' तक के पड़ाव उन्होने शीघ्र पूरे कर लिये लेकिन ध्यान साधना के दो सर्वोच्च तथा मान्य आचार्यों से शिक्षा पाकर भी सिद्धार्थ अनुत्तरित रहे। तब उन्होने निश्चय किया कि बोधिसत्व की प्राप्ति के लिये वे स्वयं साधना करेंगे और अपने गुरू आप बनेंगे और इस तरह उन्हें संबोधि की प्राप्ति हुई।       यहाँ सब हमे सीखाते है, सब किसी न किसी हद तक हमारे गुरू है, लेकिन ये भी सच है कि हमारा सबसे बड़ा गुरू हम स्वयं है.....हालांकि बोधिसत्व, संबोधि और बुद्ध होना तो असंभव है, हमे तो बस सही गलत, चेतन अचेतन, अच्छे बुरे का बोध हो जाये, हमारी बुद्धि का प्रवाह सही हो जाये..... हम बस सबुद्ध बन जाये, वही बहुत है ।       

प्रकृति और प्रेम

सृष्टि..... ईश्वर की बनायी सबसे बेहतरीन रचना। सब अद्भुत और खुबसुरत है यहाँ, अगर हम महसूस कर सके तो.... लेकिन अक्सर होता यह है कि हम सुंदरता को महसूस करना तो दूर, जी भर निहार भी न पाते,लेकिन यकीन मानिये प्रकृति कभी आपको निराश नहीं करेंगी, वो आपको भर भर कर प्यार देगी.... बदले में कुछ वापस भी न चाहिये उसे..... वो कहते है ना.... अनकंडिशनल लव....बस, वैसा ही 😍 इसके पास बैठे और बाते करे मन की.....मंद बयार आपकी बातों को सहलायेगी। कभी शांत और निश्चल मन लेकर किसी झरने के पास बैठे और सुने प्रकृति के संगीत को..... कभी खाली मन लेकर निहारे दूर तक पसरी हरियाली को और भर ले मन के खाली कोनों को....... कभी आधी रात को चुपचाप झींगुर का बोलना सुने तो कभी अलसुबह पिनड्रॉप साईलेंस में दुर से आती किसी पंछी की चहचहाहट पर ध्यान केंद्रित करे....... कभी बैठ जाये विशालकाय पहाड़ों के सामने और स्वयं का बौनापन महसूस करे........ कभी किसी नदी किनारे बैठे और बह जाये उसके साथ..... कभी नदी किनारे के पत्थरों से बातें करे, उनकी गोलाई चिकनाहट को निहारे और 'पत्थरदिल' शब्द का प्रयोग करने से पहले एक बार सोचे......

आँसू

यूँ तो नमकीन ही होते है पर फिर भी हर आँसू में फर्क होता है वो एक आँसू कुछ ऐसा होता है जो 'सब' से जुदा होता है वो सिर्फ कांधा नही भिगोता वो सिंचित करता है मन के सूखे बंजर रेगिस्तान को वो बस अविरल बहना जानता है अकारण ही..... वो दुखो से न बनता है और वो खुशी का भी न होता है भावनाओं का उफान मात्र भी नहीं होता है वो सब से जुदा होता है वो बनता है एक अद्भुत संयोग से जो अवर्णनीय है वो कभी राम भरत के मिलाप में दिखता है कभी सुदामा के चरण पखारते द्वारिकाधीश की आँखो में झलकता है तो कभी वो मीरा की आँखों में सजता है इसका ज्यादा उदाहरण न मिलता क्योकि ये अपवाद होता है अनमोल होता है अलौकिक होता है सबकी आँखों में न होता है वो मन नहीं आत्मा को हल्का करता है वो बूंद सा ढ़ूलकता नहीं है अनवरत बहता है वो घर की तामीर में एक कोना नहीं तलाशता है वो तो बस निर्विघ्न बहता है लेकिन वो सैलाब, सुनामी, तूफान या समंदर भी न होता अक्सर इन्ही की तो उपमा दी जाती है इसे वो तो भागीरथी सा होता है शांत बहती किसी नदी का किनारा होता है जो सहारा न तलाशता बस, बहती नदी से लगकर मन के खुर

उर्जा

सकारात्मक शब्द आपको हमेशा उर्जा देते है। आपके हौसलों को एक उड़ान देते है ,लेकिन जब यह सकारात्मकता अनायास निकल कर आये तो शायद यह उर्जा का विशुद्ध रूप होता है और आप एक संतुष्टि सी महसूस करते है। जिस अनायास सकारात्मकता की मै यहाँ बात कर रही हूँ,  वो है बच्चों के मुहँ से निकले शब्द, जो आपकी प्रशंसा के लिये, आपके लगाव के लिये, आपके द्वारा किये जा रहे काम को देखकर, बस, अनायास निकल पड़ते है।      मैं जब भी बच्चों के मुख से अपने लिये कुछ भी अच्छा सुनती हूँ तो मन जैसे गर्म तवे पर नाचती पानी की बूंद सा नाच जाता है।  अक्सर मेरे मित्र फेबु और व्हॉट्सऐप स्टेटस पर लगायी अपनी खुराफातों के लिये मुझे सराहते है,जो कि बहुत सामान्य सा है मेरे लिये, लेकिन जब कुछ मित्र कहते है कि हम अपने बच्चों को आपका काम दिखाते है और वे आपके फैन है....... यकीन मानिये,मेरी कला सार्थक हो जाती है। कुछ अध्यापक मित्र जब अपने विद्यार्थियों को ,किसी भी बात को समझाने के लिये मेरी कला को माध्यम बनाते है ,उस एक क्षण में जैसे मैं स्वयं को जी लेती हूँ। ऐसी ही कुछ  छोटी छोटी बाते मेरे जीवन का अनमोल हिस्सा बन जाती है.....अभी कल परसों