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माँ

मैंने तुम्हारा दाह संस्कार नहीं देखा
अंतिम यात्रा भी नहीं देखी
लेकिन मैंने देखा था तुम्हे
अंतिम बार
चिर निद्रा में लीन थी तुम
शांत थी, निश्छल थी
नये कपड़ों से तुम्हारा मोह कभी नहीं रहा
पर उस दिन तुम्हे
नयी चटख लाल चुनरी में सहेजा गया 
सिंदूर ,बिंदी भी कहाँ भाते थे तुम्हे
पर उस दिन 
सिंदूर दमक रहा था मांग में
एक सुरज सुशोभित था तुम्हारे ललाट पर
और तुम मुस्कुरा भी तो रही थी
न जाने क्यो ?
माँ कभी हँसती है ....
अपने बच्चों को रोता देखकर ?
पर तुम तटस्थ बनी रही
एक चुड़ी पहनने वाली तुम
उस दिन कलाई भरकर चुड़िया
तुम्हे पहनायी गयी
जीवन भर तुम्हे जिन सब का मोह नहीं था
तुम्हे विदा किया गया 
उन्ही सब के साथ
सब घटित हो रहा था 
शायद तिथि पुण्यतिथि में तब्दील हो रही थी 
तुम चली गयी
मेरा एक हिस्सा साथ ले गयी
अपने मन के भिक्षु का
एक हिस्सा मुझे दे गयी
बस.....पिछले छ: सालों से
हम यूँ ही साथ है 


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पलाश

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