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अमृता और इमरोज़

ऐसा नहीं है कि वो कही गयी बातों को सच मान बैठती है, खासतौर पर प्रशंसा में कही गयी बातें। वो जमीनी हकिकत को जानती है लेकिन उसकी कल्पनाओं का संसार इतना बड़ा है कि वो एक बात कि उंगली थाम न जाने कहाँ कहाँ विचरण कर आती है। वो सच झूठ की कसौटी में नहीं उलझती, कहे गये शब्दों में भी नहीं उलझती और ना ही किसी शब्द पर आँख मूंदकर विश्वास करती है। उसकी अपनी कसौटियां है, इसीलिये वो आत्ममुग्धा है । वो नहीं जानती कि ये घमंड है या ऐसा कुछ जो किसी का नूर बन जाता है लेकिन कोई है जो इसे घमंड बताता है। वो हर शब्द से अर्थ निकालती है....गहन विश्लेषण करती है। उसकी कल्पनाओं का यह संसार कलात्मकता का एक मेला है जिसे रचती है वो अपने ही रंगों, अर्थों और बातों से। अपनी ही बातें उसे कभी कभी आत्मज्ञान की तरह लगती है। उसकी अपनी अनुभूतियाँ उसे विभोर करती है। वो हर बात में अनुभूति को जीती है।
       आज जब किसी ने कहा कि "तुम अमृता भी हो और इमरोज भी" तो वो मुस्कुरा उठी, क्योकि वो कभी कभी खूद को ही कहती रही है कि "मैं इमरोज़ बनना पसंद करूँगी"।
उसे इमरोज़ बहुत पसंद है। हजारों कारण है उसके पास उसको पसंद करने के । आज की ये बात नदी में फेंके गये पत्थर की तरह है जो खूद तो डूब गया पर नदी को गोल घेरों में केंद्रित कर गया ।
अब वो एक अलग ही मायाजाल में है जिसे बस दूर से देखती है...न फंसने को लेकर आश्वस्त  है। 
बस....उसका कल्पनाजगत यूँ ही थोड़ी इतना अलौकिक है , जीयी गयी हर एक छोटी बात को बहुत खूबसूरत से एक  लिहाफ में तह करके रखी है उसने। उसके पास अपनी ही एक दूनिया है,इस दुनिया से अलग। 

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