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मई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वो एक अंडा

बच्चों के लिये कहानी लिखने का प्रथम प्रयास कल जब मैं सब्जी लेने मार्केट गयी तो भीड़ कुछ ज्यादा ही थी । बगल में ही मच्छी बाजार भी लगा था और उसकी स्मैल को सह पाना मेरे लिये दुभर था । मैने जल्दबाजी में सिर्फ टमाटर , आलु और भिंडी ली और घर आ गई।           घर आकर सब्जी का थैला एक तरफ रखकर मैंने अपने लिये चाय बनाई । चाय पीकर मैने थैले से आलु निकाले और भिंडी को धोकर सुखने रख दिया। अब टमाटर धोने की बारी थी। मैने सब टमाटर निकाले तो देखा कि एक टमाटर सफेद था। मेरे आश्चर्य का ठीकाना न रहा, मैं सफेद टमाटर पहली बार देख रही थी। मैने हाथ में लेकर देखा। अरे ! ये तो अंडा था । मैं हैरान रह गयी की ये टमाटर के साथ कैसे आया और सब्जी मार्केट में तो अंडों की कोई दुकान थी भी नहीं। खैर.....ज्यादा न सोचते हुए मैंने अंडे को डस्टबिन में डाल दिया और खाना बनाने में व्यस्त हो गई। खाना खाकर जब मैं प्लेट्स् रखने सिंक में गई तो सन्न रह गई। अंडा डस्टबिन के बाहर पड़ा था जबकि मुझे अच्छे से याद था कि मैंने अपने हाथों से उसे डस्टबिन में डाला था । मैंने उसे फिर से उठाया और डस्टबिन में डालने ही वाली थी कि मैं थोड़ा ठिठकी.....मै

मैं सपने देखती हूँ

मैं सपने देखती हूँ हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ चार दशक जीने के बाद रिश्ते नातों की लंबी फेहरिस्त में खुद को घोल देने के बाद हर कटू शब्द को जीते हुए कुछ प्रशंसाओं को पीते हुए अपने अंदर कुछ बचा पाती हूँ हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ चक्करघिन्नी सी जीते हुए सिर्फ हाउसवाइफ कहलाते हुए सुबह का नाश्ता बनाते हुए पति के खानें में थोड़ा नमक कम करते हुए बच्चों की शाम में मिल्कशेक सी घूल जाती हूँ हाँ.....मै अब भी सपने देखती हूँ रिश्तेदारी में लेनदेन को निपटाते हुए सासू माँ को समझाते हुए परम्पराओं को ढ़ोते हुए कुछ रीती रिवाजों को चुपके से ताक पर रख देती हूँ हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ जींस भी पहन लेती हूँ हील्स भी पहन लेती हूँ मोटा लाइनर आँखों पर सजा मेनोपॉज से पंगा लेती हूँ हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ जिम्मेदारियों से भागती नहीं मुसीबतों से डरती नहीं हौसला हूँ खुद का, खुद से प्यार करती हूँ हाँ.....मैं अब भी सपने देखती हूँ शिकन में ठंडी हवा का झौका हूँ बच्चों की चुहल करती दोस्त हूँ....तो ब्रेकअपस् में सहारा पाती बेल का आधार हूँ लेकिन.... अपनी गलतियो

पूर्णांक

कल बारहवीं का रिजल्ट आया....जब भी बोर्डस् के रिजल्ट आते है...एक हंगामा हो ही जाता है। हर जगह रिजल्ट की ही चर्चा....सोशियल मीडिया हो, न्यूज हो या समाचार पत्र। टॉपर रहने वाले बच्चें रातों रात सितारें बन जाते है। पुरा देश उन पर फख्र करने लगता है । उनके माता पिता गंगा नहाये से हो जाते है और जिन बच्चों को महज उनसे दो चार नम्बर कम आते है उनके माता पिता अफसोसजनक स्थिति में होते है ...रह रहकर एक तंजभरी दृष्टि अपने बच्चों पर डाल भी देते है शायद ।          यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगी कि अच्छे नम्बरों से पास होना बुरी बात नहीं है लेकिन इसका इतना हंगामा मचाना बहुत गलत है । निसंदेह 500 में से 499 लाना बहुत बड़ी बात है लेकिन इतना होने पर भी एक नम्बर कम रह जाने का अफसोस मनाना निहायत बेवकूफी है। एक नम्बर कहाँ और क्यो छूट गया .....परिजनों और बच्चों की ये सोच ही हमारी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है।        परसो जब न्यूज एडिटर मशीनी तरीके से नेशनल टेलीविजन पर यह राग अलाप रहे थे तो मेरे पति ने भी कहाँ कि वाह कितने होशियार बच्चें है......मेरा बेटा भी वही था और मैंने तपाक से कहा कि इन बच्चों ने शायद गर्दन

मेरी दादी

कल ही मायके से लौटी हूँ......माँ (दादी) की आँखे , चेहरा इस बार ओझल ही नहीं हो रहा....इतना टुटा हुआ मैंने उन्हे कभी नहीं देखा....न जाने, दिन में कितनी बार उन्हे याद कर आँखे भीग जाती है ।जानती हूँ उम्र का ये पड़ाव तकलीफ देता है लेकिन उनके  पाँवों की नसों में खुन का प्रवाह बंद हो गया है ....जिसकी वजह से नसें दर्द में बुदबदाती है.....और उनका यही दर्द जो मैं महसूस करके आई हूँ ......रह रहकर मेरी नसों में भी रिसने लगता है 😐😐 बस...थोड़ा सा वक्त माँगता है वो झुर्रियों से सजी त्वचा वो झूकी सी कमर वो बूझी सी आँखें वो उदास सी नजरें वो पैरों से होकर रिसता दर्द कुछ नहीं माँगता बस....थोड़ा सा वक्त माँगता है वो पीड़ा से भीगी ...जागती,तन्हा रातें वो लंबे से धीरे धीरे सरकते दिन वो रीढ़ में चटखता दर्द मवाद से कुलबुलातें पाँव वो बेबसी...वो निर्भरता उम्र का ये पड़ाव कुछ नहीं माँगता बस....थोड़ा सा वक्त मांगता है वो कोर तक आया पानी वो सिसकियां समेटे काँपते होठ वो जर्जर सी काया वो इंतजार में तकती आँखे वो खाली सा कमरा वो बेचैन सा मन कुछ नहीं मांगता बस....थोड़ा सा वक्त मांगता है वो धीमी सी पद