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दिसंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चल चले

हम साल के अंतिम दो दिनों में है......ये साल इतनी उहापोह लेकर आया कि हम कब से इसे अलविदा कहना चाह रहे थे , लेकिन हमारे चाहने से कहाँ कुछ होता है। सब कुछ नियत समय पर ही होना तय रहता है तो यह इस साल की सबसे बेहतरीन सीख रही कि वक्त की मार के आगे सब प्लानिंग फेल है। घुमक्कड़ी वाले दिन जैसे रफादफा हो गये , सब अपने ही घरों में सिमट गये हालांकि अब खौफ इतना नहीं रहा लेकिन बेवजह का घुमना अब गायब है और हमारी हँसी ये मुआ मास्क खा गया ।                 हर साल की तरह ये जाने वाला साल भी यही बता कर जा रहा है  कि हर वो चीज जो पा गये...क्षणिक रही, उसे पाने की खुशी क्षणिक रही....और जो न मिला वो हमेशा प्रिय रहा, स्थिर रहा, अलौकिक रहा,निरंतर रहा। गैरजरूरी चीजों को जरुरी समझने वाले हम सब उलझे रहे गैरजरूरी फंदों में और उधेड़ते रहे जिंदगी के लम्हों को....इस साल ने अहसास कराया कि वास्तव में जरुरी क्या है....इसने सीखाया लचीलापन,इसने सीखाया प्राप्य की अहमियत, इसने सीखाया कि बेसिक नीड आज भी हमारी रोटी कपड़ा और मकान ही है लेकिन हम और अधिक के पीछे भागते रहे । अधिक की चाह हर किसी को होती है लेकिन जो पास है

साढ़े पांच मीटर

सुनो लड़कियों तुम अगर थोड़ी कम लंबी हो  तो मैं तुम्हे लंबा दिखा सकती हूँ थोड़ी ज्यादा ही लंबी हो तो संतुलन बना सकती हूँ अगर थोड़ी सी मोटी हो, तो चिंता न करो कतई मैं तुम्हे पूरी तहजीब से तराश दूँगी ग़र पतली हो कुछ ज्यादा ही तो तुम्हारी दिखती हड्डियों को  बड़ी ही कुशलता से छुपा दूँगी बाकी रंग की तुम फिक्र ना रहो गोरी हो चाहे काली तुम बेमिसाल हो लेकिन सुनो छोरियों बेमिसाल हूँ मैं भी मैं पहचान हूँ मैं पूरी की पूरी संस्कृति हूँ मैं जादू हूँ जो किसी को भी जादुई बना दे मै कशिश हूँ मैं नशा हूँ मैं कमसिन हूँ मैं खूबसूरत हूँ यूँ तो मैं साढ़े पाँच मीटर का  महज एक कपड़ा हूँ पर इस कपड़े मे समेट लेती हूँ इस पूरे देश की  हर प्रांत की हर घर की सारी बातें दादी नानी और माँ की खुशबू बसी है मुझमे और सुनो लड़को मुझमे है एक आँचल भी जिसकी छांव तले तुम सब सुस्ताए हो जानते हो कौन हूँ मैं मैं साड़ी हूँ फैशन के इस दौर में गर्व से खुद पर इतराती हाँ....मैं साड़ी हूँ 

सुबह का जश्न

वो स्याह अंधेरा था फिर उसमे हल्की सी एक रेखा बनी ज्यादा चमकीली नहीं बस, धुंधली सी स्याह रात जो अब बैंगनी होने लगी उस बैंगनी में छुपा था चटख सिंदूरी जो हल्के नीले के ऊपर बिछा था वो बैंगनी,सिंदूरी को चुमता हुआ अलविदा कह गया रह गया पीछे से थोड़ा सा गुलाबी गहरी लाल नारंगी धारीयों के साथ इठलाता हुआ स्याह रात बैंगनी के साथ गुलाबी भी ले गयी अब रह गया सिंदूरी सिंदूरी आसमान .......अलौकिक, अद्भुत सुरज की अगवाई में सजा सा लंबी धारीयों के रुप में तोरण सा सजा हुआ नन्हे पक्षीयों के कलरव के साथ नीला रंग सिंदूरी के साथ ताल मिलाने लगा दोनो रंग , एक दूजे में रंगे दूर तक फैल गये सामने वाले पहाड़ की चोटी के थोड़ी बांयी ओर से सूरज ने ताका झांकी की जब आश्वस्त हुआ अपनी सज्जा, अगुवाई देखकर तो आहिस्ता से पूरा ऊपर आया आसमान जैसे नहाया सिंदूरी से पक्षी खुशी मनाने लगे पेड़ों के पत्ते गहरे हो गये पहाड़ मुसकाने लगे पता है.... प्रकृति हर रोज  ऐसा ही जश्न मनाती है हमे लगता है कि  सूरज तो हर रोज उगता है  लेकिन हम नहीं जानते हर सुबह कितनी मिन्नतों के बाद  उम्मीदें लिये आती है तुम कभी किसी पहाड़ के पीछे से सूरज को  निकलते देख