मैं पुकारती हूँ तुम्हे पर वो पुकारना शुन्य में विलिन हो जाता है जब भी दर्द में होती हूँ किसी को न दिखने वाले मेरे आँसू छलकना चाहते है तेरे आगोश में पर वो जज्ब नहीं हो पाते तेरे आँचल में और भटकते रहते है मुझमें ही तलाशते रहते है एक कोना अंधेरा सा एक काँधा अपना सा, लेकिन बेबस हो बह जाते है अंदर की ओर ही सिमट जाते है मन के एक रिक्त कोने में कभी कभी वो कोना स्पर्श चाहता है तुम्हारा नमी चाहता है अपनेपन की बारिश चाहता है प्यार की धुप चाहता है खिली खिली सी पर जानती हूँ मैं....तुम नहीं हो यहाँ रिक्त ही रहेगा वो कोना अब हमेशा अब मेरे सिर पर नहीं है वो दो हाथ जो मुझे बेफिक्री का अहसास कराते थे जबसे तुम गई हो ..... माँ पिछले पाँच सालों में भुरभुरी सी हो गई हूँ बिना जमीं का एक पौधा रह गई हूँ पर माँ मैं बरगद बनना चाहती हूँ अपनी जड़ों को भुरभुरी सी मिट्टी में गहरे तक फैला देना चाहती हूँ मजबूती से ताकि कोई भी तुफान अब मुझे हिला न सके तेरा न होना भी कभी कभी मुझमे रक्त संचार सा करता है अब तेरे सच की राह मुझे आसान लगती है अक्सर तू मुझ में समाहित हुई सी लगती है
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है