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अप्रैल, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माँ

मैं पुकारती हूँ तुम्हे पर वो पुकारना शुन्य में विलिन हो जाता है जब भी दर्द में होती हूँ किसी को न दिखने वाले मेरे आँसू छलकना चाहते है तेरे आगोश में पर वो जज्ब नहीं हो पाते तेरे आँचल में और भटकते रहते है मुझमें ही तलाशते रहते है एक कोना अंधेरा सा एक काँधा अपना सा, लेकिन बेबस हो बह जाते है अंदर की ओर ही सिमट जाते है मन के एक रिक्त कोने में कभी कभी वो कोना स्पर्श चाहता है तुम्हारा नमी चाहता है अपनेपन की बारिश चाहता है प्यार की धुप चाहता है खिली खिली सी पर जानती हूँ मैं....तुम नहीं हो यहाँ रिक्त ही रहेगा वो कोना अब हमेशा अब मेरे सिर पर नहीं है वो दो हाथ जो मुझे बेफिक्री का अहसास कराते थे जबसे तुम गई हो ..... माँ पिछले पाँच सालों में भुरभुरी सी हो गई हूँ बिना जमीं का एक पौधा रह गई हूँ पर माँ मैं बरगद बनना चाहती हूँ अपनी जड़ों को भुरभुरी सी मिट्टी में गहरे तक फैला देना चाहती हूँ मजबूती से ताकि कोई भी तुफान अब मुझे हिला न सके तेरा न होना भी कभी कभी मुझमे रक्त संचार सा करता है अब तेरे सच की राह मुझे आसान लगती है अक्सर तू मुझ में समाहित हुई सी लगती है

अपनी कहानी बयां करता एक शहर......हम्पी

मैं हम्पी हूँ......1336 में हरिहर राय और बुक्का राय नाम के दो भाईयों ने मेरी नीवं रखी थी। लेकिन मेरा इतिहास इससे भी कही पुराना है । पुरातन काल में मुझे किष्किंधा नाम से भी जाना जाता था। जी हाँ....वही किष्किंधा जिसका जिक्र रामायण में है....वानर नगरी , किष्किंधा। किसी वक्त में मैं बौद्धों की कार्यस्थली भी हुआ करता था ।      यूँ तो मेरा इतिहास प्रथम शताब्दी से ही प्रारंभ हो जाता है लेकिन सबसे ज्यादा फला फुला मैं हम्पी के रुप में।                   दक्षिण भारत के विशाल साम्राज्य विजयनगर की मैं वैभवशाली राजधानी हुआ करता था। अपनी समृद्धि, वैभव, विशालता और बनावट के लिये मैं पुरी दुनिया में प्रसिद्ध था । उस वक्त मैंने सिर्फ खुशहाली देखी । मैं भारतीय इतिहास का वो समृद्ध काल हूँ जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते । ग्रेनाइट की गोल विशालकाय चट्टानों के बीच , तूंगभद्रा नदी के किनारे बसा मैं अद्भुत शहर था । तूंगभद्रा नदी का प्राचीन नाम पंपा था और यही नाम माता पार्वती का भी था....इसी के नाम पर मेरा नाम हम्पी रखा गया । हम्पी पंपा का ही अपभ्रंश नाम है ।         हरिहर राय और बुक्काराय से लेकर सदाशिव तक