सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

पेंटिंग के पीछे की कहानी - 2

अब शुरु हुआ एक सपने पर काम....एक ऐसा सपना जो शायद गैरजरुरी सा था । जिसके पूरे होने न होने से कोई बड़ा फर्क न पड़ने वाला था,लेकिन मन बड़ा उत्साहित था भीतर से । ऐसा भी नहीं था कि ये बनाना आसान था लेकिन हाँ इतना मुश्किल भी न था। मुझे खुद पर यकीन था कि भले अच्छा न बने पर बिगड़ेगा नहीं। 
      बस...शुरुआत हो गयी , रंगों का समायोजन पहले से ही दिमाग में था। बुद्ध को उकेरने किसी रिफ्रैंस इमेज की भी जरुरत नहीं थी, उनकी छवि भी दिमाग में थी।
         जब पहली बार पेंसिल से बनाया, तब समझ में ही नहीं आया कि आँखे छोटी बड़ी है ....नाक की लंबाई कम है , होठ बीचोबीच नहीं है। सबसे बेकार बात यह थी कि मैं पोट्रेट को दूर से नहीं देख सकती थी क्योकि यह सीढियों की दीवार थी। नजदीक से कुछ भी पता नहीं लग रहा था और थोड़ा साइड से देखने पर ऐंगल ही अलग हो जाता था। अजीब कश्मकश थी....इसे सही तरीके से पूरा कैसे करूँ, लेकिन इसके पहले मैंने एक बात सीखी कि ज्यादा नजदीक से आप किसी को भी परख नहीं सकते, थोड़ा दूर जायेंगे तो हर चीज साफ नजर आने लगती है, वो कहते है न कि अपने घर की छत से आप अपना घर नहीं देख सकते। अपना घर देखने के लिये आपको घर से बाहर निकलना पड़ेगा, कुछ कदम दूर जाकर देखना होगा ,मतलब यह कि किसी भी चीज को बेहतर जानने के लिये थोड़ा दूर होना ही होगा तभी आप उसे सही सही जान पायेंगे।
      अब ऐसा ही कुछ मेरी इस पेंटिंग के साथ था, ज्यादा नजदीक से समझ नहीं आ रही थी और दूर से देखने जगह नहीं थी। फिर मैंने जुगाड़ लगाया, मोबाइल में पोट्रेट मोड में फोटो ले लेकर करेक्शन करने लगी और मुझे मनचाहे परिणाम मिलने लगे। हालांकि अभी भी सब अंदाजे से था लेकिन मैं जैसे रमकर बुद्धमय हो रही थी। 
        जब मेरा इस पेंटिंग पर काम चल रहा था, यह मुम्बई में मानसून आने का वक्त था और एक मुम्बईकर ही इस वक्त की उमस और चिपचिपाहट को समझ सकता है। मैं इस पर लागातार काम नहीं कर पा रही थी लेकिन हर दूसरे दिन पूरी तन्मयता से इसमे जुटती थी। हर दूसरी सुबह रोजमर्रा का काम निपटा मैं रंगों के साथ सीढ़ियों में बैठ जाती कि आधा घंटा में ये हिस्सा कर अंदर पंखे के नीचे जाती हूँ। लेकिन वक्त कैसे निकल जाता था, पता ही नहीं लगता था। दो दो घंटे बीत जाते थे, मैं पसीने में सराबोर हो जाती थी, लिटररी वो टपकने लगता था , मैं बाजूओं से पौछतें हुए रंग करती रहती क्योकि सीढ़ियों में हवा का कोई झौका न था ....आश्चर्य की बात यह कि मुझे इसका अहसास भी नहीं होता था। शायद ध्यानावस्था इसे ही कहते है । कभी मुझे घर के किसी सदस्य द्वारा आवाज दी जाती तो कभी अनायास ही लंचटाइम पर दस मिनिट पहले याद आता कि अरे लंच बनाना है और पसीने से लथपथ मैं सब समेट कर घर में आती। 
         बस....यूँ ही धीरे धीरे पोट्रेट आकार ले रहा था और सबसे बड़ी बात मेरे मन मुताबिक़ ले रहा था। मैं उर्जा से भरी रहती थी । यकीन मानिये, मैं बिल्कुल नहीं थकती थी और ना ही मुझ पर इसे पूरा करने का कोई दबाव था । मैं और बुद्धा दोनों अपनी ही रौ में थे। मुझे जब वक्त मिलता मैं ब्रश लेकर सीढ़ियों में जा बैठती....पूरे मनोयोग से लगी रहती। समय कम मिले या ज्यादा इसकी कोई विशेष भुमिका नहीं थी, मायने थे लगन और तन्मयता के....जिनकी कमी रत्तीभर भी न थी।
        जब मैंने बुद्ध का चेहरा बना लिया तो एक फॉरवर्ड इमेज मेरे सामने आयी जिसमे एक नन्हा लामा एक विशालकाय बुद्ध पर पुष्प अर्पण कर रहा था । यह मेरे दिमाग में अटक गयी, दरवाजा खोलकर अपने बुद्ध को निहारा और एक नन्हे बच्चे की मन ही मन कल्पना कर ली । फिर भी थोड़ी असमंजस में थी कि बना पाऊँगी कि नहीं , इसलिये परिवार के तीनों सदस्यों से राय ली , दो ने कहा कि रहने दो, अच्छा नहीं लगेगा, एक ने कहा तुम देख लो । मेरा मन कह रहा था कि अच्छा लगेगा भी और बनेगा भी । मैंने बच्चों को कहा कि मैं तो बनाऊँगी और बनने के बाद सभी को बहुत अच्छा लगा । 
       बस यूँ ही धीरे धीरे मेहनत रंग लाई और एक बहुत बड़ी शानदार पेंटिंग मेरे सामने थी । मैं खुद पर ही यकीन नहीं कर पा रही थी। बुद्ध बिल्कुल वैसे बने जैसे मैंने सोचे थे....स्थिर, शांत और ध्यानमग्न। मैं बार बार दरवाजा खोल खोलकर उन्हे देखती रहती और घर के बाकी दो सदस्यों को भी कहती रहती कि बाहर पेंटिंग देखकर आओ, शायद आत्ममुग्धता इसे ही कहते होंगे। 
       आखिरकार मेरी पेंटिंग पूरी हो गयी। घर भर को चहक चहक कर दिखा दिया। सभी को व्हाट्सएप कर दिया और सच मानिये, सभी ने सिर आँखों पर बैठाया । ये मेरे लिये पेनकिलर की तरह था । इस तरह के रचनात्मक काम किसी भी दर्द को छूमंतर कर देते है।
       मैंने एक बार फिर सीखा कि ये कोई ऐसा सपना नहीं था जो मेरी जिंदगी में कोई परिवर्तन लाता या कोई माइलस्टोन जैसा। अगर मैं यह न भी बनाती तो भी मेरी जिंदगी सुचारू रुप से चलती रहती । बस, एक बात कहना चाहूँगी कि ये जो कम महत्वपूर्ण सपने है ना , असल जिंदगी वही है। जीवन का मजा इन छुटकू वाले सपनों में ही है , इसलिये इन सपनों को कभी मारना मत या बड़े सपनों के आगे इन्हे कमतर मत समझना । इन्हे डीले भले कर देना पर पल्लवित होने देना ,अपने मन के कोनों में । अगर आपके सपनों में दम होगा तो वो स्वयं ही अपनी जगह बना लेंगे वरना बैकअप प्लान तो आजकल हर चीज का है । साथ ही यह भी सीखा कि सपना आपका है तो पूरा भी आपको ही करना है। किस तरह से करना है, ये सोचना आपका काम है । एक बार आप काम शुरू कर देते है तो राहें स्वतः खुलने लगती है। बस, ध्यान रखे कि बीच राह सपना छोड़कर भटके नहीं और ना ही थके । आराम करे, विराम ले, विश्राम ले पर अपनी आँखे एक वक्त में एक लक्ष्य पर टीकाकर रखे। सफलता की गारंटी की बात न सोचे....बस अपनी लगन पर फख्र करे।

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पिता और चिनार

पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं  पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये  तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही  पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा  चिनार और पिता

कुछ अनसुलझा सा

न जाने कितने रहस्य हैं ब्रह्मांड में? और और न जाने कितने रहस्य हैं मेरे भीतर?? क्या कोई जान पाया या  कोई जान पायेगा???? नहीं .....!! क्योंकि  कुछ पहेलियां अनसुलझी रहती हैं कुछ चौखटें कभी नहीं लांघी जाती कुछ दरवाजे कभी नहीं खुलते कुछ तो भीतर हमेशा दरका सा रहता है- जिसकी मरम्मत नहीं होती, कुछ खिड़कियों से कभी  कोई सूरज नहीं झांकता, कुछ सीलन हमेशा सूखने के इंतजार में रहती है, कुछ दर्द ताउम्र रिसते रहते हैं, कुछ भय हमेशा भयभीत किये रहते हैं, कुछ घाव नासूर बनने को आतुर रहते हैं,  एक ब्लैकहोल, सबको धीरे धीरे निगलता रहता है शायद हम सबके भीतर एक ब्रह्मांड है जिसे कभी  कोई नहीं जान पायेगा लेकिन सुनो, इसी ब्रह्मांड में एक दूधिया आकाशगंगा सैर करती है जो शायद तुम्हारे मन के ब्रह्मांड में भी है #आत्ममुग्धा

किताब

इन दिनों एक किताब पढ़ रही हूँ 'मृत्युंजय' । यह किताब मराठी साहित्य का एक नगीना है....वो भी बेहतरीन। इसका हिंदी अनुवाद मेरे हाथों में है। किताब कर्ण का जीवन दर्शन है ...उसके जीवन की यात्रा है।      मैंने जब रश्मिरथी पढ़ी थी तो मुझे महाभारत के इस पात्र के साथ एक आत्मीयता महसूस हुई और हमेशा उनको और अधिक जानने की इच्छा हुई । ओम शिवराज जी को कोटिशः धन्यवाद ....जिनकी वजह से मैं इस किताब का हिंदी अनुवाद पढ़ पा रही हूँ और वो भी बेहतरीन अनुवाद।      किताब के शुरुआत में इसकी पृष्ठभूमि है कि किस तरह से इसकी रुपरेखा अस्तित्व में आयी। मैं सहज सरल भाषाई सौंदर्य से विभोर थी और नहीं जानती कि आगे के पृष्ठ मुझे अभिभूत कर देंगे। ऐसा लगता है सभी सुंदर शब्दों का जमावड़ा इसी किताब में है।        हर परिस्थिति का वर्णन इतने अनुठे तरीके से किया है कि आप जैसे उस युग में पहूंच जाते है। मैं पढ़ती हूँ, थोड़ा रुकती हूँ ....पुनः पुनः पढ़ती हूँ और मंत्रमुग्ध होती हूँ।        धीरे पढ़ती हूँ इसलिये शुरु के सौ पृष्ठ भी नहीं पढ़ पायी हूँ लेकिन आज इस किताब को पढ़ते वक्त एक प्रसंग ऐसा आया कि उसे लिखे या कहे बिना मन रह नहीं प