उसके शरीर के कुछ हिस्सों में
पानी के बुलबुले से उठ आये थे
हाँ.... शायद पानी के ही,
उस पानी में
समाये थे कुछ जज्बात
कुछ भाव
कुछ थी, बांधे गये
आँसुओं की धार
कुछ छींटे उसमे क्रोध के भी थे
जो कभी व्यक्त न हो सके
एक नीला सा आवरण
हलाहल का भी था
जो जज्ब कर लिया था उसने
भीतर ही भीतर
बुलबुलों में उफान आता रहा
वो तरल थे, स्निग्ध थे
पर न जाने क्यो
एक प्रक्रिया के तहत चट्टान हो गये
अब पीड़ा पहूँचाने लगे है
क्या उसे काटकर अलग कर देना चाहिये ?
या फिर एक मौका देना चाहिये
वो सोचती है कि
इस पत्थर से
एक पौधा पल्लवित होना ही चाहिये
हाँ....वो सहला रही है उस चट्टान को
नन्ही पत्तियों वाला
एक विशाल वृक्ष उगेगा वहाँ
चट्टान उर्वरक हो जायेगी
शरीर का हिस्सा बन जायेगी
इतना साहस कैसे लाती हो ? मतलब मुझे यकीन नहीं हो रहा इतने जीवंत शब्दों में तुमने जो बयां किया है इस कविता में... Tears are rolling down while reading❣
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