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साल बदल रहा है

साल खत्म हो रहा है  नाह....खत्म नहीं साल बदल रहा है जैसे  बदलते है मौसम बदलते है रिश्तें बदलती है प्राथमिकताएं  बदलाव तो प्रकृति है बदलाव स्वीकार्य है बस.... कुछ भी खत्म न हो  बचा रहे हर रिश्ता  परिवर्तित रुप में ही सही बची रहे पत्तियों की सरसराहट हर बदलते मौसम की आहट पर बची रहे जिम्मेदारियों की अनुभूति बदलती प्राथमिकताओं के साथ आओ....नववर्ष,  एक नवजात की तरह  तुम्हारा स्वागत है  #आत्ममुग्धा 

समीक्षा

" कुछ गुम हुए बच्चे " एक किताब जो , मेरे आस पास तो थी पर सुकून की चाहत में थी । अब जब पूरी तन्मयता से इस किताब को पढ़ रही हूँ तो लग रहा है कि यह सरसरी नजर से पढ़कर सिर्फ फोटो खिंचवाने वाली किताब नहीं है। यह किताब पिटारा है जिसने जीवन की छोटी बड़ी सभी बातों को बड़ी खूबसूरती से शब्दों में पिरो दिया है और जादूई काम को कारगर किया है सुनीता करोथवाल ने...जो कि न सिर्फ हिंदी की बल्कि हरियाणा का भी एक जाना पहचाना नाम है।        किताब की पहली ही कविता जैसे समाज पर प्रश्न करती है बेटियों की सुरक्षा को लेकर तो वही दूसरी कविता में सुनीता हर बच्चें के बचपन को गुलजार बनाने की बात कहती है । तोत्तोचान की गलबहियां डाल वह मातृभाषा और वास्तविक ज्ञान पर जोर देती है । इसी तर्ज पर उनकी अगली कविता है जो किताब का शीर्षक है..कुछ गुम हुए बच्चें। जब आप इस कविता को पढ़ रहे ह़ोगे तो यकिन मानिये , आप अपने बचपन से रुबरू हो रहे होंगे। भीतर कही अहसास होगा कि विकास की तर्ज पर चलते हुए , अपने बच्चों को वंडर किड्स बनाते हुए हम कितना कुछ उनसे अनजाने ही छीन रहे है। जो हमारे लिये सामान्य था वो इन बच्चों के लिये बहुत दू

जानना

मैं बहुत कुछ जान सकती हूँ मैं बहुत कुछ कह सकती हूँ किताबें और गुगल  दोनो मुझे सब बताते है इस दुनिया की बातें  और  तीसरी दुनिया की भी अनकही अनजानी सी बाते मैं धीमे से मुस्कुराती हूँ उस मुस्कुराहट से  मेरे चेहरे पर दरारें पड़ जाती है क्योकि मेरा ऊपरी चेहरा  इन दिनों सख्त है  अभ्यस्त है सलीके से रहने का खुद को निष्ठुर दिखाने का  अब मेरी मुस्कुराहट  हौले से हटा रही है मुखौटे को और एक निश्वास भरकर  मैं सोच रही हूँ  मैं बहुत कुछ जान सकती हूँ बहुत कुछ कह सकती हूँ पर वास्तव में  मुझे उतना ही जानना है  जो मेरे लिये जानना जरुरी है  #आत्ममुग्धा

भोपाल गैस कांड

दिसम्बर की सर्द हवा थी  जहर उगलती रात थी  सायनाइड की सांसें थी झीलों की नगरी थी  मौत का शामियाना था हांफते पड़ते कदम थे फेफड़ों में समाता विष था  जिंदगी की ओर भागते लोग थे मौत का तांडव था  सहमा सा शहर था  अट्टहास लगाता प्रेत था  पेड़ पर उलटा लटका एक पिशाच था रच रहा था तमाशा  लाखो को लील रहा था विरासत में भी हलाहल ही सौप रहा था तीन मिनिट थे मौत की नींद थी जो मरे वो भोपाल गैस कांड था जो बचे उनके अहसास मरे घाव उनके आज भी हरे #आत्ममुग्धा