क्या आपने किसी नदी को बांध बनते हुए उसके बदलाव को महसूस किया है । मैंने महसूस किया है और देखा है । कुछ सालों पहले अपनी सिक्किम यात्रा के दौरान जब हम 'घुम' से 'पीलिंग' को जा रहे थे और हमारे साथ साथ चल रही थी नदी तिस्ता । मनमोहक रास्ता और तिस्ता का साथ, जैसे सब कुछ जादुई हो गया था। तिस्ता की चंचलता मेरा मन मोह रही थी और मुझे ऐसे लग रहा था जैसे उसने हमारा दामन पकड़ लिया हो ।एक पल को वह ओझल हो जाती तो दुसरे ही पल फिर से अपनी मस्ती के साथ हमसे मिलने आ जाती । कही कही उसकी लहरें उग्र रुप से खतरनाक थी तो कही शांत पर थोड़ी सी चचंल,लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गये यह गंभीर होती गयी और फिर आगे चलकर यह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गयी । मेरी उत्सुकता बढ़ गयी । मैंने ड्राईवर से इस बारे में पुछा तो उसने बताया कि यहाँ पर बाँध बनाया गया है इसलिये यह यहाँ रुक गयी है । एक बारगी मुझे लगा जैसे किसी चचंल से बच्चें के हाथ ही बांध दिये गये हो ।निःसंदेह मुझे तिस्ता की चचंल लहरों की कमी खल रही थी और उसकी स्वतंत्रता का हनन मुझे कदापि पसंद नहीं आया । माना कि बांध मनुष्य विकास का ही एक हिस्सा
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है