सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

फ़रवरी, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नदी का बांध हो जाना

क्या आपने किसी नदी को बांध बनते हुए उसके बदलाव को महसूस किया है । मैंने महसूस किया है और देखा है ।  कुछ सालों पहले अपनी सिक्किम यात्रा के दौरान जब हम 'घुम' से 'पीलिंग' को जा रहे थे और हमारे साथ साथ चल रही थी नदी तिस्ता । मनमोहक रास्ता और तिस्ता का साथ, जैसे सब कुछ जादुई हो गया था। तिस्ता की चंचलता मेरा मन मोह रही थी और मुझे ऐसे लग रहा था जैसे उसने हमारा दामन पकड़ लिया हो ।एक पल को वह ओझल हो जाती तो दुसरे ही पल फिर से अपनी मस्ती के साथ हमसे मिलने आ जाती । कही कही उसकी लहरें उग्र रुप से खतरनाक थी तो कही शांत पर थोड़ी सी चचंल,लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गये यह गंभीर होती गयी और फिर आगे चलकर यह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गयी । मेरी उत्सुकता बढ़ गयी । मैंने ड्राईवर से इस बारे में पुछा तो उसने बताया कि यहाँ पर बाँध बनाया गया है इसलिये यह यहाँ रुक गयी है । एक बारगी मुझे लगा जैसे किसी चचंल से बच्चें के हाथ ही बांध दिये गये हो ।निःसंदेह मुझे तिस्ता की चचंल लहरों की कमी खल रही थी और उसकी स्वतंत्रता का हनन मुझे कदापि पसंद नहीं आया ।       माना कि बांध मनुष्य विकास का ही एक हिस्सा

चमकीली आँखों वाली लड़की

उसे हिंदी की गहन समझ नहीं मुझे अंग्रेजी का ज्ञान नहीं फासला उम्र का भी भरपूर दोनो ही मगरुर वो आजाद ख़्याल....बेबाक बिंदास वो लिसनर बेहतरीन वो पूरी मुम्बईया न जाने कैसे मुझसे जुड़ी कौनसे तार कहाँ टकराये मुझमे न जाने क्या वो पाये संताप अपना झर दिया मेरे लिखे से खूद को जोड़ लिया  कुछ शब्दों पर शायद वो अटकती फिर भी हर भाव वो समझती उसकी आँखे सब बयां करती चुपचाप वो कुछ मोती छलकाती बिना सिसकियों दर्द वो बहाती वो खुशमिजाज सी लड़की बिना गला भर्राए आँखों से सब कह जाती मेरे हर लिखे पर  उसकी झड़ी  न जाने मुझे कहाँ ले गयी जिस भाव में जो जो लिखा वो हुबहू उसकी आत्मा तक पहूँचा चमकीली आँखों वाली वो लड़की भीगी पलकें दिखा गयी रोका नहीं कोरों के पानी को उसने मुस्कुराते हुए बेबाक छलका गयी वो प्यारी सी लड़की मोतियों से मुझे सराबोर कर गयी पहली मुलाकात में मालामाल कर गयी  

नीलकंठ

सुनो नीलकंठ बिल्कुल तुम्हारी तरह मैंने भी विष को  गले में  उतार रखा हैं ह्रदय तक नहीं उतरने देती और बिल्कुल तुम्हारी ही तरह एक तीसरा नेत्र मेरे पास भी हैं जिससे देखती हूँ मैं  हलाहल को और  महसूस करती हूँ उसके आघात को उसकी तीव्रता को इसलिये उसे पी कर तुम्हारी तरह ही धारण कर  लेती हूँ तुम भी गले से  नीचे नहीं उतारते और .....मैं भी क्योकि तुम्हारी अमरता और  मेरी जीवन्तता हमे ऐसा  करने नहीं देती ।

नीली आभा

नफ़रत से भरे तुम्हारे कड़वे शब्दों को कुरेद कर स्नेह से सींच अमृत समझ धारण कर लिया सदा सदा के लिये उगलो तो ज़हर निगलो तो ज़हर इसलिये सजा लिया बिल्कुल नीलकंठ की तरह अपने कंठ में अब ये नीली सी आभा मेरे कंठ की 

मैं होना चाहती हूँ

मैं 'मैं' होना चाहती हूँ दूर कही जाकर  खूद में रमना चाहती हूँ घने जंगल में जाकर पत्तों की सरसराहट....और झींगुर को सुनना चाहती हूँ समंदर के अकेलेपन और खारेपन को महसूसना चाहती हूँ टूटते तारे को देख बहुत मांगी मन्नत अब उसे टूटने से बचाना चाहती हूँ उस राह पर दौड़ना चाहती हूँ जिसकी कोई मंजिल नहीं उस सफर को जीना चाहती हूँ जिसका कोई मुकाम नहीं रिश्तें नाते और संबोधनों से दूर एक जिंदगी चाहती हूँ हाँ......कुछ वक्त के लिये मैं सिर्फ़ 'मैं' होना चाहती हूँ 

माँ हूँ तुम्हारी

 चाहती हूँ मैं  कि मेरी खुशियाँ तुम्हे लग जाये  और , तुम्हारे दुखों को मैं अपना लू  आँख में आये आंसू तुम्हारे  तो अपनी पलकों में सहेज लू  कही मिले ना आसरा तुझे  तो अपने आँचल में समेट लू  हंसो जब तुम  तो तुम्हारी मुस्कुराहट को गले लगा लू  जब ख़ुशी से चमके तुम्हारी आँखे  तो उसे अपनी कामयाबी बना लू  गलत राह भी ग़र चलो तुम  तो वो राह भी तुम्हे चुनने ना दूँ  क्योकि ; माँ हूँ तुम्हारी  चाहती हूँ तुम्हे परिपूर्ण देखना 

कैंसर

सुना है  आज कैंसर दिवस है हर दिन को मनाने लगे है हम लोगो को जागरूक करने के लिये...मे बी ! यह ठीक है, लेकिन तभी तक जब तक आप इससे रुबरु न हुए हो मुझे तो यह शब्द  पिछले पाँच छ: सालों से डराता आ रहा है मैं जानती हूँ इसे मिली हूँ इससे  अपनी माँ के दिमाग से होकर गुगल पर बहुत खंगाला था तब लेकिन अब निडरता से समझती हूँ क्योकि  जानती हूँ जो जितना डरता है उसको उतना डराया जाता है आखिर ये कैंसर है क्या ? ये हमारी कोशिकाओं का विभाजन मात्र है इसी विभाजन से जीव का विकास होता है  लेकिन  यही विभाजन जब अति पार कर जाता है अनियंत्रित होकर विनाश को आता है तब तब कैंसर जन्म लेता है जब हम डर जाते है तो यह ठठाकर अपना विस्तार करता है हाहाकार करता है लेकिन  जब हम इसका सामना करते है  तो यह विस्तृत होने में सकुचाता है सुनो यह डरता है तुमसे इसे धमकाओ  गुर्रा कर शेर बन जाओ ये तुम्हे खत्म करे  इसके पहले तुम इसे ध्वंस करो बस, लड़ते रहना.....क्योकि  इसकी उत्पत्ति ही विभाजन से हुई है ये सबसे पहले  तुम्हारे मनोबल को विभक्त करेगा ये सिर्फ तोड़ना जानता है पर तुम टुटना मत जुड़े रहना मजबूती से फिर देखना....ये स्वयं टूट जायेगा 

कैंसर

सिर्फ पंद्रह दिनों का सिर दर्द हाँ.....सिर्फ पंद्रह दिनों का याद है मुझे आज भी जिसका कभी सर न दुखा उसे अचानक लागातार  कैसे ?  दर्द भी तो साधारण ही था कोई अवेयर हो भी तो कैसे ? पर मेरे पापा !  अवेयर थे  जबकि माँ बिल्कुल नहीं सीटी स्केन हुआ रिपोर्ट आयी न जाने कैसे एक गाँठ आयी गाँठ हमेशा पीड़ा ही देती है मन में हो शरीर में हो या फिर धागों में हो लेकिन मन कहता है हल्दी की गाँठ तो शुभ शगुन होती है ना फिर वो रिपोर्ट वाली गाँठ  इतनी चिंताजनक क्यो ?  आनन फानन ये दौड़भाग क्यो? हर दूसरा दिन  पहले से बदतर क्यो? बताया गया कि  यह गाँठ बहुत रेयर है हर किसी को नहीं होती मन आज भी असमंजस में है इस गाँठ ने मेरी माँ का चयन क्यो किया? यह आशीर्वचन की तरह बढ़ती है दिन दूनी रात चौगूनी ये कर रही थी.... धीरे धीरे माँ के दिमाग पर कब्जा जरुरत थी उसे हटाने की इसके तंतू बहुत सुक्ष्म थे इतने सुक्ष्म कि पूरी तरह नहीं हट पाये उन्हे हटाते हुए  कुछ आवश्यक तंत्रिकाओं से छेड़छाड़ हुई बेवजह के कुछ प्रहार से वो क्रुद्ध हुई मस्तिष्क ने एक फरमान सुनाया संवेदनाओं का बवाल बनाया शरीर के एक हिस्से को  अपना ग्रास बनाया मृतप्रायः सा उस