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पेंटिंग के पीछे की कहानी - 1

ग्यारहवीं या बारहवीं कक्षा में रही होऊँगी मैं, जब मैंने पहली बार ऑयल पेंटिंग बनायी थी .....कैनवास मिलता नहीं था आस पास जल्दी से, तो हार्डबोर्ड पर ही बनाया था। मुझे अच्छे से याद है वो मैडोना का चेहरा था, बड़ा सा चेहरा। लगभग दो ढ़ाई फुट जितना। उसके बाद मैंने कई और भी पेंटिंग्स बनायी, खास बात यह थी कि सब दो फुट से बड़ी ही बनायी । मुझे बड़ा मजा आता था बड़ी बड़ी पेंटिंग्स बनाने में। कोई क्लासेज हमारे शहर में उस वक्त थी नहीं तो हर दूसरी पेंटिंग से खुद ही सीखती गयी। 
           कुछ समय बाद शादी हो गयी । रंगों से साथ छूट गया, ऐसा नहीं कहूँगी क्योकि रंग तो जिंदगी का हिस्सा होते है। समझ लीजिये कि जिंदगी की पिच बदल गयी थी, खिलाड़ी वही था। एक लंबा वक्त निकल गया। बच्चें हो गये और मैं गृहस्थी में रम गयी ।
              बच्चे बड़े हो गये और मुझमे कही एक उत्सुकता जगने लगी बच्चों सी। ऑयल की जगह एक्रिलिक रंगों को देखा,तेल की जगह पानी के साथ मिक्सिंग को देखा। एक नयी तरह की चित्रकारी को देखा। रौनक धैर्य के साथ सब करता और मैं बच्चों सी अधीरता से सब देखती । 
           फिर जीवन में एक बिछोह आया , कुछ लोग कहते है कि विरह में कला निखरती है, शायद सच ही है क्योकि  यह बिछोह मेरे जीवन में कला के अनवरत आयाम लेकर आया । मुझे उससे उर्जा मिलने लगी। फर्क सिर्फ इतना था कि मैं इस बार छोटी छोटी कलाकृतियां बना रही थी। हाथ सधने लगे , पेंसिल के शेड्स मुझे भाने लगे। निरन्तर प्रयास के बिना भी ईशकृपा से सब बढ़िया हो जाता था । फिर कुछ यूँ हुआ कि पेंसिल छोड़ पेन और ब्रश लिया और मजा आने लगा। एक बार फिर बड़ी पेंटिंग बनाने मन ललक उठा। 
लेकिन आपको पता है, हमारे यहाँ सबसे बड़ी समस्या क्या है कि हम इतनी बड़ी बड़ी पेंटिंग्स को रखेंगे कहाँ ? 
हास्यास्पद है लेकिन यह सच है । 
मैंने इसीलिए कभी बहुत बड़े कैनवास नहीं बनाये लेकिन हाँ , अपने बच्चों को कभी मना नहीं किया । वो कैनवास के अलावा कुछ बनाते ही नहीं । उनके बनाये सभी कैनवास बड़े मनोयोग से सहेजती। छोटे बड़े सब । मेरे मन में भी बड़े कैनवास बनाने के हिलोर उठते पर फिर वही बात आगे आ जाती कि रखूँगी कहाँ ? 
 जितना मन को समझाती उतना मन में उमंग ज्यादा उठती और मन ही मन एक सपना कब अंकूरित हो गया, पता ही न लगा। मन कहता कि अपनी हाइट से भी बड़ी एक पेंटिंग बनानी है। बिना खाद पानी ये सपना पल्लवित होता रहा। पिछले तीन चार सालों में इसने अपनी जड़े जमा ली । साथ ही साथ यह भी तय था कि इतनी बड़ी कैनवास पेंटिंग तो बनानी नहीं है फिर ये मन की हिलोरें शांत कैसे होगी। करीबी लोगों को कहने लगी कि एक न एक दिन अपनी हाइट से बड़ी पेंटिंग बनाऊँगी....कब, कैसे, कहाँ....पता नहीं, पर......बनाऊँगी जरुर । 
     फिर सोचने लगी कि घर के अंदर की वॉल पर कुछ बनाऊँ लेकिन मुम्बई के प्लैटों की दीवारें लंबी होने के पहले ही खत्म हो जाती है और दूसरी बात यह भी कि ऐसी पेंटिंग से घर का इंटिरियर भी प्रभावित होता , ऐसा मेरे अलावा घर के अन्य सदस्य सोचते। पर यकीन मानिये, मुझे इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता, मुझे अपने सपने के लिये किसी कदरदान की नही महज एक अदद सी दीवार की तलाश थी । मैं सिर्फ बड़ी दीवार की तलाश में थी और फिर एक दिन घर के सामने सीढ़ीयों की ओर ऊपर को जाती एक दीवार का चुनाव मेरे सपने ने कर लिया । 
    कोई रोकने वाला था नहीं क्योकि यहाँ किसी का कोई इंटिरियर प्रभावित होने वाला नहीं था। मैं सब्जेक्ट का चयन करने लगी, कभी लगा बड़े बड़े सूरजमुखी के फूल बनाऊँ, कभी सोचा बड़े पेड़, कभी डूडल तो कभी ट्राइबल आर्ट का सोचा । अंत में सोचा कि बुद्ध का चेहरा बनाती हूँ जिनकी शिक्षाओं का मैं अनुसरण करती हूँ । फिर से कुछ दिन यूँ ही निकल गये ये सोचते हुए कि एक न एक दिन मैं अपनी हाइट से बड़ी पेंटिंग जरुर बनाऊँगी। 
      एक दिन सुबह सुबह लगा कि सिर्फ सोचने से नहीं होगा, करना पड़ेगा और पेंसिल लेकर मैं सीढ़ियों में एक बड़ा सा चेहरा बनाकर आ गयी , इस तृप्ति के साथ कि एक शुरुआत हुई। 
वाकई ये शुरुआत थी अब आगे आगे सब अपने आप होने लगा। 

                                       .........शेष अगली पोस्ट में 

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