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हनुमान जयंती

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कुछ दुख बेहद निजी होते है

आज का दिन बाकी सामान्य दिनों की तरह ही है। रोज की तरह सुबह के काम यंत्रवत हो रहे है। मैं सभी कामों को दौड़ती भागती कर रही हूँ। घर में काम चालू है इसलिये दौड़भाग थोड़ी अधिक है क्योकि मिस्त्री आने के पहले पहले मुझे सब निपटा लेना होता है। सब कुछ सामान्य सा ही दिख रहा है लेकिन मन में कुछ कसक है, कुछ टीस है, कुछ है जो बाहर की ओर निकलने आतुर है लेकिन सामान्य बना रहना बेहतर है।        आज ही की तारीख थी, सुबह का वक्त था, मैं मम्मी का हाथ थामे थी और वो हाथ छुड़ाकर चली गयी हमेशा के लिये, कभी न लौट आने को। बस तब से यह टीस रह रहकर उठती है, कभी मुझे रिक्त करती है तो कभी लबालब कर देती है। मौके बेमौके पर उसका यूँ असमय जाना खलता है लेकिन नियती के समक्ष सब घुटने टेकते है , मेरी तो बिसात ही क्या ? मैं ईश्वर की हर मर्जी के पीछे किसी कारण को मानती हूँ, मम्मी के जाने के पीछे भी कुछ तो कारण रहा होगा या सिर्फ ईश्वरीय मर्जी रही होगी। इन सबके पीछे एक बात समझ आयी कि न तो किसी के साथ जाया जाता है और ना ही किसी के जाने से दुनिया रुकती है जैसे मेरी आज की सुबह सुचारु रुप से चल रही है , मन भीतर जो है उसकी परछाई भी

राम लला

लला की प्राण प्रतिष्ठा हुई चहूं ओर जय जयकार हुई कण कण में राम बोले हर मन में राम बोले तेरे राम, मेरे राम हम सबके राम हम सबसे, कुछ यूं बोले राम को मन में बसाना होगा राम को अपनाना होगा जय श्री राम से कुछ न होगा अपने मन की चौखट पर राम को स्थापित करना होगा चलकर मैं आया हूँ कई सौगातें साथ लाया हूँ राम को भजना राम को रमना प्राण प्रतिष्ठा मेरी तुम अपने मन में भी करना वरना सिर्फ नारों में मैं रह जाऊंगा मात्र मेरे आने से रामराज न आयेगा हर मन जब राम बसेगा तब ही तो राज राम का आयेगा जब प्राणों में मुझे रखोगे कण कण में हर सांस में मुझे पाओगे 🙏 #आत्ममुग्धा

हिंदी

आज विश्व हिंदी दिवस है। हिंदी एक ऐसी भाषा जिसमे सुकून है, जो हमारी आत्मा की भाषा है। मुझे इसकी लिपि से भी प्यार है । हिंदी लिखना और हिंदी बोलना दो अलग बाते है  बिल्कुल इसी तरह भाषाई शुद्धता और भाषाई सौंदर्य दो अलग बातें है । बात करते है इसके पहले बिंदू पर......अमूमन हम सब हिंदी बोल लेते है लेकिन मोबाईल में देवनागरी लिखना और पढ़ना सब लोग नहीं कर पाते। मैं सिर्फ इसीलिये देवनागरी में लिखती हूँ ताकि मेरे बच्चें इस लिपि के मातृत्व से जुड़े रहे, मातृभाषा के मोह में रहे।       अपनी भाषा का मिठास सबसे मीठा । हिंदी बोलने को लेकर दो छोटी घटनाएं आपके साथ शेयर करती हूँ। यह बात कुछ दिनों पहले की है जब शगुन एक ऐसे देश गयी जहाँ सब अंग्रेजी के पहले अपनी भाषा बोलते है । वो वहाँ पाँच दिन रूकी , हम सब उसके लगातार संपर्क में थे और जब भी नेटवर्क मिलता , हम बात कर लेते। एक फ्लाईट लेकर जब वो टोक्यो पहूँची तो अगली फ्लाईट में समय अंतराल कम होने की वजह से हम चिंतित थे। हम सबने चैन की सांस ली थी जब वो बोर्डिंग की लाइन में लग गयी थी। टोक्यो से दिल्ली तक की 10:35 की फ्लाईट में वो 10:29 पर बैठी और जैसे ही बैठी ,

इतवार

साल काअंतिम महीना, अंतिम इतवार सोमवार, फिर नयी शुरूआत मेरे इन इतवारों पर बोझ बड़ा है मैं हर काम इतवार पर जो डाल देती हूँ कोई भी काम आज न हुआ चलो, इतवार को करेंगे और मेरा इतवार सारी जिम्मेदारी अपने सिर लेता है आखिर हर आठवें दिन फिर आ जाता है पेंडिग कामों की लिस्ट साथ लिये चलता है शायद साल के पहले इतवार चर्चा की थी मैंने एक साड़ी पेंट करनी थी एक बड़ा सा कैनवास भी इंतजार में था डिक्लटरिंग का वादा भी खुद से था खुद का ख्याल मेरी लिस्ट में सबसे पहले था रेगुलर चेकअपस् की जिम्मेदारी थी परिवार की भागादौड़ी भी साथ थी खाने से जंक हटाना था सुबह सुबह समय से आगे दौड़ना था कुछ रिश्तों की बिगड़ती लय को भी साधना था अब यही लिस्ट लिये खड़ा है इतवार मेरे आगे मैंने भी नजरे मिलाकर कहा गये सारे इतवार मेरे अपने रहे भले कुछ काम पेंडिंग रहे लेकिन जो काम पूरे हुए उन पर गुरूर हुआ छूटे पर भला कैसा मलाल हुआ जंक हटा नहीं पर कम हुआ खाने की प्लेट में सलाद बढ़ा साड़ी न सही पर ब्लाऊज जरूर पेंट हुआ कैनवास बड़ा हो या छोटा चित्र जरूर उभरा यात्राएं बेहद हुई , छूटते रहे नियमित काम फिर भी सु

पहाड़

स्पीति यात्रा के दौरान वहाँ के पहाड़ों ने मुझे अपने मोहपाश में बांधे रखा । उनकी बनावट, टैक्चर बहुत अद्भूत था। वे बहुत लंबे, विशालकाय, अडिग थे। मनाली से काजा का दुर्गम रास्ता पार करते हुए इनसे मौन संवाद होता रहा। मैं इनकी ऊँचाई और आस पास की नीरवता से लगभग स्तब्ध थी। ये एकदम सीधे खड़े से पहाड़ थे जैसे कोई खड़ा रहता है सीना ताने। कालक्रम की श्लांघाओं से दूर ये साक्षी रहे साल दर साल होने वाले परिवर्तनों के।             उन दुर्गम रास्तों से गुजरते हुए, ग्लेशियरों को पार करते हुए बहुत बार मन ने सोचा कि क्या ये हमेशा से ऐसे ही खड़े है। क्या इनका स्वरूप यही था ? इन पहाड़ो में इतना आकर्षण क्यो है हालांकि ये अलग बात है कि इस नीरव पथ पर दिल की धड़कने तीव्र गति से चलती रही, सड़क की स्थिती ने चेहरे पर बारह बजा रखे थे , इस रास्ते पर यात्रा करना एक साहसिक काम है और इस साहस में ये पहाड़ हर मोड़ पर साथ निभाते रहे और यह यात्रा मेरे जीवन की अविस्मरणीय यात्रा बन गयी।      मैंने इन पहाड़ो के अलग अलग विडियों बनाये, इनकी ऊँचाई,इनकी बनावट मुझमे जैसे रचबस गयी। आज जब अटलजी की ये कविता सुनी तो लगा जैसे ये पहाड़

इमरोज

अमृता की कहानी का मुख्य अध्याय , मुख्य पात्र इमरोज, जिसने आज इस दुनिया को अलविदा कह दिया। प्रेम, इश्क, मोहब्बत इन दिनों बहुत सामान्य सी बात है और बहुत आसानी से उपलब्ध भी है। इसके बड़े बड़े किस्से हमे अक्सर देखने सुनने मिल जाते है, नहीं मिलता तो सिर्फ "इमरोज" क्योकि इमरोज होना आसान नहीं है।        एक बहुत लंबा जीवन जीने वाले इमरोज ने अपना पूरा जीवन अमृता को समर्पित कर दिया और समर्पण भी ऐसा कि कोई मिसाल नहीं सिवाय स्वय इमरोज के। अमृता को जानने वाले जानते है कि इमरोज क्या थे । अमृता से परे  हटकर देखते है तो इमरोज एक कवि और चित्रकार थे लेकिन अमृता से मिलने के बाद उनके चित्र , उनकी कविताएं सिर्फ अमृता के ही इर्द गिर्द रही । उनका कतरा कतरा अमृता के लिये प्यार से लबरेज़ रहा।            अक्सर सोचती हूँ कि पीठ पर साहिर नाम उकेरती अमृता की अंगुलियां इमरोज को कैसी लगी होंगी ? इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं। लेकिन इमरोज के अनुसार इससे फ़र्क क्या पड़ता है। वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं। मैं भी उन्हें चाहता हूँ। समर्पित प्रेमी के लिये शायद इन बातों के कोई मायने नह