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जीवन उत्सव

क्यो इंतजार करते हम खुशियों का क्यो तकते राह उत्सवों की क्यो साल भर बैठ  इंतजार करते जन्मदिन का क्यो नहीं मनाते हम हर एक दिन को क्यो नहीं सुबह मनाते क्यो शामें उदास सी गुजार देते क्यो नहीं रात के अंधेरों को हम  रोशनाई से भरते कभी अलसुबह उठकर सुबह का उत्सव मनाना देखना कि कैसे  आसमान सज उठता है  चहकने लगते है पक्षी खिल उठता है डाल का हर पत्ता अगुवाई होती है सुरज की  वंदन होता है उसके प्रखर तेज का तुम उस तेज को मनाना सीखो कभी शाम भी मनाओ ढ़लते सुरज को देखो  उसके अदब को देखो शाम-ए-जश्न के लिये खुद विदा कह जाता है गोधूलि की धूल को देखो घर लौटते पंछियों को देखो ऊपर आसमान में  विलीन होती सिंदुरी धारियों को देखो आरती के समय ह्रदय में उठते कंपन को देखो देखो .....हर रोज शाम यूँ ही सजती है अब....रात के अंधेरों को मनाओ ये रातें तुम्हारे लिये ख्वाब लेकर आती है इन्हे परेशान होकर मत जिओ सुकून से रातें रोशन करो बोलते झिंगुरों के बीच तुम जरा चाँद से बाते करो उसकी कलाओं को निहारो  सोचो जरा..... सदियों से ये चाँद हर रात को उत्सव की तरह मनाता है तुम भी उत्सव मनाना सीखो कभी समंदर की आती जाती लहर को देखो कभी

सखा

भारतीय पुराणों की अद्भुत घटनाओं में से एक है कृष्ण सुदामा मिलन । यूँ तो कृष्ण की लीलाओं का कोई छोर नहीं पर ये विलक्षण लीला तो विभोर कर देती है।          सुदामा, जो कि कृष्ण के बाल सखा है और दीनहीन गरीब ब्राह्मण है । दोनों सखाओं का बचपन छूटा और साथ भी छूटा। कृष्ण द्वारका आ गये और वही के होकर रह गये। अपनी दरिद्रता से दुखी सुदामा अपने सखा कृष्ण जोकि अब राजा है, से मिलने द्वारका आते है । कृष्ण को जब सुदामा के आने का संदेश मिलता है तो कृष्ण नंगे पावं दौड़े आते है और अपने बालसखा को देखकर विभोर हो उठते है। वे सुदामा को अपने साथ महल में लेकर आते है ,अपने सिंहासन पर उन्हे बैठाते है और उनके लहुलुहान पावों को अपने हाथों से धोते है।        महल में सब लोग सन्न है, रुक्मिणी अचंभित है, स्वयं सुदामा स्तब्ध है । 36 करोड़ देवी देवता मंत्रमुग्ध है इस कृष्णलीला पर। कैसी होगी वह घड़ी जब एक दरिद्र  ब्राह्मण सिहांसन पर विराजमान है और स्वयं द्वारकाधीश उनके चरणों में बैठकर उनके चरण पखार रहे है । जिसने भी यह दृश्य देखा, ठगा सा रह गया और अश्रु झड़ी से सराबोर हो गया। द्वारकाधीश की प्रेमपगी आँखे अनवरत बह रही है , वे ए

किताब

इन दिनों एक किताब पढ़ रही हूँ 'मृत्युंजय' । यह किताब मराठी साहित्य का एक नगीना है....वो भी बेहतरीन। इसका हिंदी अनुवाद मेरे हाथों में है। किताब कर्ण का जीवन दर्शन है ...उसके जीवन की यात्रा है।      मैंने जब रश्मिरथी पढ़ी थी तो मुझे महाभारत के इस पात्र के साथ एक आत्मीयता महसूस हुई और हमेशा उनको और अधिक जानने की इच्छा हुई । ओम शिवराज जी को कोटिशः धन्यवाद ....जिनकी वजह से मैं इस किताब का हिंदी अनुवाद पढ़ पा रही हूँ और वो भी बेहतरीन अनुवाद।      किताब के शुरुआत में इसकी पृष्ठभूमि है कि किस तरह से इसकी रुपरेखा अस्तित्व में आयी। मैं सहज सरल भाषाई सौंदर्य से विभोर थी और नहीं जानती कि आगे के पृष्ठ मुझे अभिभूत कर देंगे। ऐसा लगता है सभी सुंदर शब्दों का जमावड़ा इसी किताब में है।        हर परिस्थिति का वर्णन इतने अनुठे तरीके से किया है कि आप जैसे उस युग में पहूंच जाते है। मैं पढ़ती हूँ, थोड़ा रुकती हूँ ....पुनः पुनः पढ़ती हूँ और मंत्रमुग्ध होती हूँ।        धीरे पढ़ती हूँ इसलिये शुरु के सौ पृष्ठ भी नहीं पढ़ पायी हूँ लेकिन आज इस किताब को पढ़ते वक्त एक प्रसंग ऐसा आया कि उसे लिखे या कहे बिना मन रह नहीं प

कुछ अनसुलझा सा

न जाने कितने रहस्य हैं ब्रह्मांड में? और और न जाने कितने रहस्य हैं मेरे भीतर?? क्या कोई जान पाया या  कोई जान पायेगा???? नहीं .....!! क्योंकि  कुछ पहेलियां अनसुलझी रहती हैं कुछ चौखटें कभी नहीं लांघी जाती कुछ दरवाजे कभी नहीं खुलते कुछ तो भीतर हमेशा दरका सा रहता है- जिसकी मरम्मत नहीं होती, कुछ खिड़कियों से कभी  कोई सूरज नहीं झांकता, कुछ सीलन हमेशा सूखने के इंतजार में रहती है, कुछ दर्द ताउम्र रिसते रहते हैं, कुछ भय हमेशा भयभीत किये रहते हैं, कुछ घाव नासूर बनने को आतुर रहते हैं,  एक ब्लैकहोल, सबको धीरे धीरे निगलता रहता है शायद हम सबके भीतर एक ब्रह्मांड है जिसे कभी  कोई नहीं जान पायेगा लेकिन सुनो, इसी ब्रह्मांड में एक दूधिया आकाशगंगा सैर करती है जो शायद तुम्हारे मन के ब्रह्मांड में भी है #आत्ममुग्धा