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नये साल को गले लगाये

आज साल का आखिरी दिन है गये दिसम्बर की तरह बीत रहा ये साल भी कुछ मलाल थे जो अब इन पलों में रहे नहीं  कुछ बाते अनकही सी समेट रही है खुद को यही कही देखो.....सुनो हंसी है एक खनकती हुई दूर तक सुनायी देती हुई खुली सी बांहें है  सफर करती हुई कोई आवाज नहीं है  पीछे से पुकारती हुई बस,कुछ खुशियां है  ओस की बूंदों सी ठहरी हुई आओ सहेज ले इन्हे शिकायतों की अब जगह नहीं उदासियों की कोई वजह नहीं रोशन हो आँखें सितारों सी चमके चेहरा चाँद सा होठों पर तराने आये अपनी अपनी धून गाये आओ, कुछ जुगनुओं को दोस्त बनाये नये साल को गले लगाये

धिक्कार है

खुशी होती थी उसे  अपने वजूद पर मूक जानवरों की पीड़ा समझती थी वो स्नेह से दुलारती भी थी शायद लेकिन नहीं जानती थी वो, कि जानवर तो मूक होता है स्नेह की भाषा समझ जाता है लेकिन खतरनाक होता है वो जानवर जो बोलता है एक मानवीय भाषा पर, जो स्नेह नहीं, जिस्म समझता है  जरा सोच कर देखो..... कितना दर्द सहा होगा उसने पहले आत्मा को रौंदा गया फिर शरीर को..... कहते है दर्द का एक मापदंड होता है  जिसमे शायद  दूसरे नम्बर पर प्रसव पीड़ा आती है जो सिर्फ स्त्री के हिस्से आती है स्त्री सहर्ष इसे सहती है  सृष्टि रचती है लेकिन सुनो मैंने कही सुना है, कि पहले पायदान पर आता है देह को जीवित जला देने वाला दर्द ये दर्द नहीं था उसके हिस्से में फिर क्यो जली उसकी देह ? विघ्नहर्ता थे उसके गले में क्यो उसके विघ्न हर न सके ? डरते डरते बात करते हुए उसने फोन रख दिया क्यो डर हावी था उस पर ?  अरे ! तब तो 12 भी नहीं बजे थे और न ही था उसके साथ कोई तथाकथित दोस्त जिसके आधार पर  उसका कोई चरित्र निर्माण किया जा सके  अब तो  कोई लांछन भी नहीं लगाया जा सकता उस पर  फिर क्यो वो तिल तिल मरी ? अब मीडिया उसके घर जायेगा उसकी बहन को कुरेदेगा उस

अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस

सुनो तुम्हारा होना मायने रखता है भले ही   तुम दिखा नहीं पाते जज्ब़ात पुरुष हो न स्त्री की तरह कमजोर नहीं दिखा पाते खुद को तुम्हे मजबूत बना रहना होता है चाहकर भी कोमलता नहीं दिखा पाते नहीं तरल होती तुम्हारी आँखें आखिर पुरुष हो तुम्हारी दाढ़ी मुछों तले छुप जाता है सब सारे भाव, सारी संवेदनाएं तुम संवेदनशील नहीं हो सकते क्योकि तुम पुरूष हो सुनो.... किसने बनाये ये नियम ? कौन रचता है अलग ये रचनाएं कहाँ अलग हो तुम धड़कता है एक दिल तुममे भी चुपके से छलकती है आँखे तुम्हारी भी कचोटती है अंतर्आत्मा तुम्हारी भी चिल्लाना चाहते हो तुम भी सुनो..... मैं चाहती हूँ तुम्हारे हिस्से का थोड़ा सा पुरूष बनना थोड़ा सा महसूसना तुम्हे तुम भी थोड़ा सा मेरा स्त्रीत्व ले लेना जी लेना कोमल भावनाओं को और बह जाना उनमे सुनो..... हम प्रतिस्पर्धी नहीं पूरक है 

मौन

मौन...... एक ऐसी भाषा जिसकी कोई लिपि नहीं और कोई शब्द नहीं,फिर भी सर्वश्रेष्ठ भाषा।जिसने इस भाषा को समझ लिया,मान लिजिये कि जीवन की गहराई को समझ लिया।जिस तरह से समुद्र की गहराई में छुपे बेशकिमती हीरें मोती पाने के लिये उस गहराई तक उतरना पड़ता हैं बिल्कुल इसी तरह जब हम मौन रहते है तो अपने अन्तर्मन के समुद्र में गोते लगाते हैं और बहूत कुछ अपने मन का ऐसा निकाल लाते है जो अब तक मन के किसी कोने में दफन था।वास्तव में मौन के दौरान हम अपने आप को पुन:र्जीवित करते है। यह एक ऐसी तकनीक है जो हमे रिचार्ज करती है।                   हालांकि मैं स्वयं बचपन में बहूत बातुनी थी,नि:सन्देह अभी भी हूँ,लेकिन पता नहीं क्यों,ये मौन हमेशा मुझे अपनी तरफ खिंचता हैं।सालों पहले जब मैंने एक कोर्स किया था,तब पहली बार इसका स्वाद चखा था,तब से लेकर आज तक कोशिश ही करती रही हूँ इसमे डूब जाने की,इसमें उतर कर कुछ बेशकिमती पा जाने की........ .....लेकिन मेरी कमजोरी कहिये या फिर मजबूरी,मुझे बोलना ही पड़ता हैं।हाँ इतना जरुर हैं कि इसे पाने की ख्वाहिश ने मुझे मितभाषी तो कुछ हद तक बना ही दिया,अपने आप से मिलने की जुस्तजूं ने मुझे ठ

बरगद

उसने सबको खुली हथेली पर बोया था बाँधकर संजोना नहीं आता था उसे मुठ्ठी बाँधना भी तो न जानती थी वो फिर भी...... वो लोग सिमटे रहे  उसी हथेली में जबकि वो देना चाहती है उन्हे उनके हिस्से की जमीं और एक बड़ा सा आसमां जहाँ वो अपनी जड़े फैला सके लंबी उड़ान भर सके  वो खूद बरगद है चाहती है  हथेली पर अंकुरित  नन्ही पौध को बरगद बनाना 

साथ

साथ.....दो अक्षरों का छोटा सा शब्द। गहन मायने है इसके। कभी कभी हम किसी के साथ, जीवन भर चलते हुए भी इस शब्द के मायने नहीं समझ सकते, तो कभी कभी कोई कोई बिना मिले , बिना देखे भी हमेशा साथ महसूस होता है....जैसे की ईश्वर ।                             कई लोग कहते है कि ऐसा कैसा साथ....न मिले, न देखा, न जाना...इवन कभी कभी तो बात भी नहीं होती फिर भी कोई अपना सा होता है। सोच कर देखिये....क्या आप कभी ईश्वर से मिले है, उसे देखा है, उसे स्पर्श किया है....फिर भी उसे साथ पाते है ना, अपना हर दुख उसके आगे झरते है, बिना किसी आवरण आप उसके सामने होते है, आप अपना क्रोध, गुस्सा सब ईश्वर के आगे रखते है, आप पारदर्शी हो जाते है उसके आगे ...क्यो ?  क्योकि आप हर वक्त उसका साथ महसूस करते है । आपको डर नहीं होता खूद को उसके समक्ष एज इट इज रखते हुए।       बस, ऐसे ही कुछ रिश्ते भी होते है , जिनको महसूस करने की क्षमता गहन होती है । ऐसे रिश्तों में आपके मन का हर कोना शतप्रतिशत वास्तविक होता है, कोई भी बात फिल्टर नहीं होती, कोई भी कण अछुता नहीं होता, कोई दुराव नहीं होता.....ऐसे रिश्ते ईश्वरतुल्य होते है, निडर होते है..

The Sky Is Pink

कुछ फिल्मे होती है जो मनोरंजक होती है, कुछ प्रेरित करती है, कुछ सोचने पर मजबूर करती है लेकिन कल जो फिल्म मैंने देखी, उसे देखते हुए कितनी ही बार और कितने ही दृश्यों में ऐसा लगा, जैसे पटल पर मैं ही हूँ और मैं खुद को ही जीते हुए देख रही हूँ। फिल्म है The sky is pink ....भावों जज्बातों से भरी एक सच्ची कहानी पर आधारित फिल्म ।         इस फिल्म में अपनी बच्ची के जीवन के लिये , जिस तरह माता पिता सब कुछ दाँव पर लगा देते है वो अंतस तक छू जाता है। हालांकि हरेक माता पिता अपने बच्चों के लिये अपना सब दाँव पर लगा देते है लेकिन परिस्थिति विशेष में स्थिर और दृढ़ रहकर बच्चे को पुरे मनोबल और मनोयोग से पालना सहज सरल नहीं होता है, वो भी एक लंबे वक्त तक। इतना लंबा वक्त , कि शायद कभी कभी सब्र की भी पराकाष्ठा हो जाये। फिल्म के कितने ही दृश्य मुझे भावविभोर कर गये।          फिल्म में एक दृश्य है जब आईशा की रिपोर्ट्स उसके 16वे साल में बिल्कुल ठीक आती है और उसकी माँ खुशी से जैसे पागल हो जाती है....मुझे लगा जैसे मेरा वक्त मुझे दोहरा रहा हो....शगुन की रिपोर्ट्स भी उसके 16वें साल में पहली बार नॉरमल आई थी और मैं कि

हार ना मानूंगी

मैं हार ना मानूंगी जिंदगी के झौको संग चलूंगी थपेड़े आँधियों के सहूंगी, पर मैं हार ना मानूंगी गोधुली की धूल लेकर भोर की किरणों से नये सृजन करूँगी, पर मैं हार ना मानूंगी मुसीबतो को गले लगाकर झंझावतों में झूलकर तप तप कुंदन बनूंगी, पर मैं हार ना मानूंगी तुफानों से रुबरु होकर जीवन से सबक लेकर जंग हर एक लडूंगी, पर मैं हार ना मानूंगी राह के काँटे चुनकर फूल भले ना बिछा पाँऊ सुकून के पल सजाऊँगी,पर मैं हार ना मानूँगी करता है ईश्वर प्रेम मुझे बाल न बांका होने देना उसका प्रेम लेकर पार हर राह करुंगी, पर मैं हार ना मानूंगी

अंतिम तह

कितना मुश्किल होता है किसी की सिमटी तहों को खोलना सिलवटे निकालना और फिर से तह कर सौंप देना प्याज की परतों सी होती है ये, पर प्याज की तरह नहीं खोला जाता इन्हे एक एक परत को सहेजना पड़ता है अंतस तक पहूँचकर बाहर निकलते वक्त फिर से परत दर परत को हूबहू रखना पड़ता है जानती हूँ ये ढ़ीठ होती है नहीं खुलेगी आसानी से साधक की तरह सब्र रखना होगा लेकिन विश्वास है खुलेगी....... प्याज की तरह नहीं गुलाब की पंखुड़ियों की तरह....स्वतः ही जब पायेगी ओस की बूंदों सा स्पर्श कुछ परतें पार कर ली कुछ अभी भी बाकी है अंतिम तह में दबे कुछ ग्लानि भावों को निकाल लाना है फिर सौंप देनी है सभी परतें ज्यो की त्यो क्योंकि हर परत पूँजी है उसकी नहीं अधिकार किसी को भी बेरोक टोक आने का मैं जानती हूँ उसे वो मेरी ही छाया है अंश है मेरा नहीं अनुमति देगी प्रवेश की..... कोई और वहाँ पहूँच कर तहस नहस करे उसके पहले वहाँ जाना है करीने से सब कुछ सजा कर फिर लौट आना है और लौटना ऐसा कि उसकी अंतिम तह सिर्फ उसकी बस,मैं कोशिश में हूँ

ब्रह्मांड देखा है ?

ब्रह्मांड देखा है तुमने ? मैंने विचरण किया है हवा सी लहराई हूँ उन आँखों में गहरे उतर कर जैसे ब्लैकहोल को छू लिया हो वो गहराई रम गई मुझमे नजर बदल गई, नजरिया बदल गया अब जैसे एकाकार हूँ मैं समुचे ब्रह्मांड से न जाने किसकी ओरबिट में चाँद बनी घूम रही हू्ँ तू मैं हूँ मैं तू है गहन गहनता लिये गुरुत्वाकर्षण से बाहर हूँ मैं सघन हूँ तुझमे तुम एक दिव्य पूँज की तरह स्थित हो मेरे अनाहत चक्र में जिसे, बिना तुम्हारी इजाजत ले जा रही हूँ मैं सहस्रार की ओर देखो..... उन आँखों में उतर कर पुरा ब्रह्मांड पा लिया मैंने अब बोलो क्या कहोगे इसे ?

प्रयास

एक मिशन....एक वैज्ञानिक प्रयास । इसरो का एक बेहतरीन प्रयास....जिसके अंतिम कदम पर हम फिसल गये । जब प्रयास किये जाते है तो हम लागातार सफलता की ओर कदम दर कदम बढ़ते है , लेकिन सफलता या असफलता के परिणाम को सोच कर कभी प्रयास नहीं किये जाते, इसरो ने भी नहीं किये थे। हम पहले भी रोवर को चाँद तक पहूँचा चुके है, सफलता का स्वाद हम चख चुके है । इस बार कुछ चुक हुई होगी या कुछ परिस्थितियां ऐसी बन गई होगी कि हमारा संपर्क टूट गया......लेकिन इसे नैतिक दबाव की तरह लेने की जरुरत नहीं है। वैज्ञानिक प्रयोग सतत चलने वाली प्रक्रिया है , इतिहास गवाह है पहली बार में कोई प्रयोग सफल नहीं हुए है....बल्कि ऐसी असफलताएँ तो और अधिक सतर्कता से आने वाले प्रयोगों को सफल बनाती है । ऐपीजी कलाम की आत्मकथा में मैंने पढ़ा है कि कई विफलताओं का परिणाम ही रोहिणी सैटेलाइट का सफलतापूर्वक लाँच था।         इन सब के बीच सबसे सुखद रहा हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी की इसरो ऑफिस में उपस्थिति। इसरो चीफ का भावुक होना और प्रधानमंत्री मोदी का उन्हे गले लगाकर उनकी पीठ सहलाना....किन्ही शब्दों की जरुरत नहीं थी वहाँ ढ़ांढ़स बँधाने.....वो मानवता की,सं

शिक्षक दिवस

आज टीचर्स डे है.....यानि कि शिक्षक दिवस। यूँ तो जिंदगी हमारी सबसे बड़ी शिक्षक है लेकिन मूल रुप से हम, आज का दिन हमे अक्षर ज्ञान सिखाने वाले गुरुओं को ही समर्पित करते है।       स्कूल में बिताया गया समय हमारे जीवन का एक सुनहरा समय होता है, न जाने कितनी खट्टी मिठ्ठी यादें जूड़ी है स्कूली जीवन और शिक्षकों के साथ। ये वो वक्त होता है जब आपके व्यक्तित्व को आकार मिल रहा होता है ।          मेरे पास ऐसे बहुत से किस्से है अपने शिक्षकों से जुड़े जो मेरे आज के व्यक्तित्व में एक महत्वपूर्ण भुमिका निभाते है ।मुझे याद है चौथी कक्षा में मैंने अपना पहला प्राइज जीता था स्पीच में और उस वक्त मेरे सर मुझसे ज्यादा खुश थे । उसके बाद जब उनकी अनुपस्थिति में  बिना उनकी मदद के मैंने इंदिरा गाँधी की मृत्यू पर खुद से लिख और याद करके एक स्पीच दी और प्रथम आई.....तो जब उन्हे पता लगा तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा । मैं शायद नौ या दस वर्ष की थी उस वक्त ....तब न गूगल बाबा थे और न ही इडियट बॉक्स पूरे दिन किसी को श्रद्धांजलि देता था...सिर्फ 20 मिनिट की न्यूज आती थी, उसी में उनके एक भाषण की झलकियाँ देखकर मैंने अपनी स्पीच तैया

भाषा

नहीं जरुरत है हमे किसी भाषा की या फिर किसी लिपि की मत ईजाद करो कुछ तौर तरीके किसी के दिल में घर करने को आँखों को पढ़ने के लिये तुम्हे कुछ सीखना नहीं पड़ेगा नहीं जरुरत गहन विश्लेषण की नहीं जरुरत भाषाई सुंदरता की समझो....... कि हम मे से कोई भी मोहताज नहीं है शब्दों के संवेदनशील है हम मुक रहकर मौन को जी कर सच कहती हूँ..... जरुरत नहीं है हमे किसी भाषा की किसी लिपि की तुम बस मुस्कुराया करो खिलखिलाया करो और कभी मन करे....तो दो आँसु बहाया करो इनकी कोई लिपि नहीं होती....फिर भी हर भाषाई जानकार समझ जाता है इन्हे ये मानवता की भाषा है तुम बस इसे समझना सीखो और हाँ..... तुम चित्र बनाना सीखो नृत्य सीखों, घूंघरुओं को बजाओ या सीखो कोई ऐसी कला जो नहीं बँधी हो भाषा के दायरों में यह एक अनुभूति है जो भाषाओं की दुनिया में भाषाओं से परे भाषाओं से कही उपर है उन अनुभूतियों में हम सब एक है एकांत है

वो कृष्ण है

जो जीवन जीना सीखाये हर रंग में रंग जाना सीखाये वो कृष्ण है जो मान दे सभी को सबके दिलों में समा जाये वो कृष्ण है जो रास रचाये,बंसी बजाये महाभारत में शंखनाद करे वो कृष्ण है जो यशोदा का प्यारा है देवकी का दुलारा है वो कृष्ण है जो रुक्मिणी का है....पर राधा के बिना आधा है वो कृष्ण है

कश्मीर

खुशियाँ क्या होती है? आज चहकते चिनार से पूछिये घाटी की वादियों से पुछिये पुछिये उन नजारों से जो सहमे सहमे से जन्नत की सैरगाह कहलाते थे खुशियां क्या होती है ? उन लाखों धड़कते दिलों से पुछिये जो अपने ही घर में पराये से रहते थे पुछिये उन पहाड़ों से जो खुशी से आज थोडें ऊँचें से अधिक है उन झीलों से पुछिये जो आज झिलमिला कुछ ज्यादा रही है देवदार के पेड़ आज आमादा है आसमान को गले लगाने घाटी की सड़के हमेशा की तरह लहरदार है पर आज बेखौफ कुछ ज्यादा है पुछिये उस लाल चौक से जो विरान सा था.... देश का मस्तक होकर भी मुकुट विहिन था उसकी खुशी आज बेहद बेहिसाब है बदल गई है नजर सज गया है हर मंजर पुछिये मेरे कश्मीर से जहाँ आज खुशियाँ दस्तक दे रही है

वो बच्ची

वो बच्ची.... दद्दू उसे बुलाती रही गलत उसकी नजरों को भांपती रही ताड़ती थी निगाहे उसे तार तार वो होती रही कातर नजरे गुहार लगाती रही शर्मसार इंसानियत रपटे लिखाती रही धृतराष्ट्र राज करते रहे हवालातों में पिता मरते रहे बाहर औलादें सिसकती रही न जाने किस भरोसे वो तुफानों से टकराती रही खेलने खाने के मनमौजी दिनों में वो जीवन के तीखे तेवरों को अपनी कम उम्र में पिरोती रही रग रग, रोम रोम में साहस को सजाकर अदना सी होकर खासमखास से पंगा लेती रही लेकिन..... रसुखदारों के आगे वो टिक न सकी उसकी लाखों की इज्जत दो टके की बनी रही न जाने कितने शकुनी षड्यंत्रों की चाल में फंसती रही हिम्मत न हारकर भी वो अपनों को खोती रही,पर हर हाल में जुझती रही न जाने कौन जीता, कौन हारा खेल बिगड़ा, पासा पलटा अब अपनी ही सांसों से वो जुझ रही

हिमा

तुम उड़ान भरो पंखों में अपनी जमीनी खुशबू लेकर उड़ो सातवें आसमान के भी पार उड़ो तुम उड़ो पाँवों में बाँध कर घूंघरूँ अपनी कामयाबियों के और उड़ती रहो.....लागातर...बिना थके...अनवरत तुम भारत पुत्री हिमा हो तुम नन्ही सी हो जो जीतने पर खुश होकर दौड़ पड़ती है तिरंगा अपने कांधे पर उठाकर और सार्थक कर देती है 'विश्व विजयी तिरंगा प्यारा' की धारणा को तुम मान हो देश का गौरव हो, सम्मान हो तुम बटोर लाई हो खुशियाँ तुम समेट रही हो कुछ कालजयी लम्हें तुम मुसकान हो देश की माना कि.... ये देश ढ़िंढ़ोरा नहीं पीट रहा तुम्हारी सफलता का शर्मिंदा है हम... लेकिन यकिन मानो हिमा मुक खड़ा यह देश भी छलका रहा है अपनी आँखे बिल्कुल वैसे.... जैसे तुम्हारी छलकी थी राष्ट्रगान को सुनकर जब पराये देश में फिरंगियों के बीच ऊँचा उठता है तिरंगा .....और गुंज उठता है जन गन मन तो हम सब नतमस्तक हो जाते है तुम्हारे आगे तब तुम अकेली.... एक पुरा देश होती हो हिमा तुम समुचे भारत को खुद में समेट लेती हो तुम्हे प्यार बहुत सारा हिमा 😍

स्नेह की आँच

लगभग दो ढ़ाई महिने पहले मिल कर आई थी माँ (दादी) से। बहुत कमजोर लग रही थी और इस बार जैसे हिम्मत भी हार गई हो....बिल्कुल टुटी हुई। मेरी आँखे तब भी भर आई थी और अपने घर आने के बाद भी, उन्हे याद कर अक्सर भर आती थी। अभी दो दिन पहले फोन पर बात हुई तो माँ की आवाज मुझे कुछ अलग सी लगी । भाभी और पापा से बात हुई तो पता चला कि माँ पहले से भी कमजोर हो गई है, खाना ना के बराबर कर दिया है....बस, तब से मन अटक रखा है....यंत्रवत काम करते हुए भी मन उनके इर्द गिर्द ही भटक रहा है। मेरा उनके पास राखी पर जाना तय था, लेकिन मन नहीं मान रहा था और मैंने कल की ही टिकिट बना कर पापा को फोन कर दिया कि मैं आ रही हूँ। मैं अचानक पहूँच कर माँ को सरप्राइज देना चाहती थी, उनकी झूर्रियों को हँसते देखना चाहती थी । मम्मी के जाने के बाद माँ मे ही अपना सब देखती हूँ मैं। वो दुनियां की सबसे प्यारी और सबसे खुबसूरत दादी है।           लेकिन......अभी अभी पापा का फोन आया बोले कि बेवजह आकर परेशान मत हो , माँ ठीक है एकदम ।  माँ से बात करवाई और बेचारी मेरी दादी.....मेरे दादाजी और पापा के प्रेशर में आकर बोलती है कि मैं ठीक हूँ , तु क्या करे

आर्टिकल 15

कल आर्टिकल 15 देखी....मनोरंजक फिल्मों से बहुत अलहदा, यथार्थवादी फिल्म। पूरी फिल्म झंझोड़ कर रख देती है...फिल्म के संवाद तमाचे से मारते है....कितने ही दृश्यों में मुझे अपनी आँखों में कुछ पिघलता सा लगा। हालांकि यह पोस्ट कोई फिल्म समीक्षा नहीं है लेकिन फिर भी बौद्धिकता और तार्किकता रखने वाले हर दर्शक को यह फिल्म देखनी चाहिये। हम जैसे मेट्रो सिटी में रहने वाले लोगो के लिये बहुत आसान होता है अपने ड्रॉइंग रुम में बैठकर 26 जनवरी और 15 अगस्त के दिन देशभक्ति के स्टेटस अपडेट करना....हमे अपने देश पर गर्व होता है क्योकि हमने प्रतिकूल परिस्थितिया देखी ही नहीं होती है....हमे जातिगत भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा.....हमारे लिये दुनिया अच्छी है, देश अच्छा है....मैं भी हर बार हैशटैग करती हूँ "लाइफ इज ब्युटीफुल"। हमारी जिंदगी खुबसूरत होती है हर बार। जब हम अखबार में किसी देहात की किसी बच्ची के गैंग रेप की घटना पढ़ते है तो हम परेशान होते है क्योकि हमारी संवेदनशीलता अभी मरी नहीं है .....लेकिन हफ्ते भर में वो घटना किसी दुसरी ऐसी ही घटना को अपनी जगह दे देती है.....गाँव बदल जाता है, बच्ची बदल जाती ह