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साल बदल रहा है

साल खत्म हो रहा है  नाह....खत्म नहीं साल बदल रहा है जैसे  बदलते है मौसम बदलते है रिश्तें बदलती है प्राथमिकताएं  बदलाव तो प्रकृति है बदलाव स्वीकार्य है बस.... कुछ भी खत्म न हो  बचा रहे हर रिश्ता  परिवर्तित रुप में ही सही बची रहे पत्तियों की सरसराहट हर बदलते मौसम की आहट पर बची रहे जिम्मेदारियों की अनुभूति बदलती प्राथमिकताओं के साथ आओ....नववर्ष,  एक नवजात की तरह  तुम्हारा स्वागत है  #आत्ममुग्धा 

समीक्षा

" कुछ गुम हुए बच्चे " एक किताब जो , मेरे आस पास तो थी पर सुकून की चाहत में थी । अब जब पूरी तन्मयता से इस किताब को पढ़ रही हूँ तो लग रहा है कि यह सरसरी नजर से पढ़कर सिर्फ फोटो खिंचवाने वाली किताब नहीं है। यह किताब पिटारा है जिसने जीवन की छोटी बड़ी सभी बातों को बड़ी खूबसूरती से शब्दों में पिरो दिया है और जादूई काम को कारगर किया है सुनीता करोथवाल ने...जो कि न सिर्फ हिंदी की बल्कि हरियाणा का भी एक जाना पहचाना नाम है।        किताब की पहली ही कविता जैसे समाज पर प्रश्न करती है बेटियों की सुरक्षा को लेकर तो वही दूसरी कविता में सुनीता हर बच्चें के बचपन को गुलजार बनाने की बात कहती है । तोत्तोचान की गलबहियां डाल वह मातृभाषा और वास्तविक ज्ञान पर जोर देती है । इसी तर्ज पर उनकी अगली कविता है जो किताब का शीर्षक है..कुछ गुम हुए बच्चें। जब आप इस कविता को पढ़ रहे ह़ोगे तो यकिन मानिये , आप अपने बचपन से रुबरू हो रहे होंगे। भीतर कही अहसास होगा कि विकास की तर्ज पर चलते हुए , अपने बच्चों को वंडर किड्स बनाते हुए हम कितना कुछ उनसे अनजाने ही छीन रहे है। जो हमारे लिये सामान्य था वो इन बच्चों के लिये बहुत दू

जानना

मैं बहुत कुछ जान सकती हूँ मैं बहुत कुछ कह सकती हूँ किताबें और गुगल  दोनो मुझे सब बताते है इस दुनिया की बातें  और  तीसरी दुनिया की भी अनकही अनजानी सी बाते मैं धीमे से मुस्कुराती हूँ उस मुस्कुराहट से  मेरे चेहरे पर दरारें पड़ जाती है क्योकि मेरा ऊपरी चेहरा  इन दिनों सख्त है  अभ्यस्त है सलीके से रहने का खुद को निष्ठुर दिखाने का  अब मेरी मुस्कुराहट  हौले से हटा रही है मुखौटे को और एक निश्वास भरकर  मैं सोच रही हूँ  मैं बहुत कुछ जान सकती हूँ बहुत कुछ कह सकती हूँ पर वास्तव में  मुझे उतना ही जानना है  जो मेरे लिये जानना जरुरी है  #आत्ममुग्धा

भोपाल गैस कांड

दिसम्बर की सर्द हवा थी  जहर उगलती रात थी  सायनाइड की सांसें थी झीलों की नगरी थी  मौत का शामियाना था हांफते पड़ते कदम थे फेफड़ों में समाता विष था  जिंदगी की ओर भागते लोग थे मौत का तांडव था  सहमा सा शहर था  अट्टहास लगाता प्रेत था  पेड़ पर उलटा लटका एक पिशाच था रच रहा था तमाशा  लाखो को लील रहा था विरासत में भी हलाहल ही सौप रहा था तीन मिनिट थे मौत की नींद थी जो मरे वो भोपाल गैस कांड था जो बचे उनके अहसास मरे घाव उनके आज भी हरे #आत्ममुग्धा

तुम शिव बनना

आज पुरुष दिवस है लगभग सभी पुरुष बेखबर है  इस दिन से उनके लिये रोज की तरह सामान्य सा दिन है यह भी क्योकि उनके जीवन की जद्दोजहद कहाँ मौके देती है उन्हे जश्न मनाने के वे तो अपना जन्मदिन तक नहीं मना पाते हर घर में ऐसे बहुत से पुरुष होते है जो अपनों की राह में  खुशियों की तरह बिछ जाते है हिम्मत बनकर खड़े रहते है वो रीढ़ होते है घर परिवार की उनकी आँखों के हिस्से आँसू नहीं है उनके गालों की जमीं  रुखी है खुरदुरी है पर खारी नहीं है उनका दिल नरम नाजुक है पर दिखता सबको वो सख्त है अपनों की मृत्यु पर वो  तमाम जिम्मेदारियों को कांधे पर ले लेते है और भीगे मन से घर का एक खाली कोना तलाशते रहते है चुपचाप दो बूंद झलकाने को अपनी दाढ़ी मूछों के पीछे अपने भावों को छुपाये रहते है सुनो तुम.... आधी आबादी हो तुम हर स्त्री ह्रदय का पुरुष तत्व हो तुम अपनी आँखों को इजाजत दो बहने की अपने दिल को इजहार की अपने मन को खुशी में झूमने की तुम्हारे होने से सब कुछ है अपने पुरुष होने पर गर्व करना, दंभ नहीं तुम आधार हो एक ऐसी संस्था के (पितृसत्तात्मक) जहां तुम्हारा वर्चस्व है बस, इस अंहकार से परे रहकर  अपने भीतर के स्त्रीत्व को

झरना

वो झरना है खुशियों का दिल के हर कोने से फूटते जल प्रतापों का  संग्रह है वो हर किसी के लिये कलेजा निकाल कर  रख देना उसकी फितरत है छल कपट जिससे कोसो दूर है खरे सोने सा जिसका दिल है वो एक ऐसा शख्स है जो सिर्फ देना जानता है हाँ...... उसकी हँसी थोड़ी चौड़ी हो जाती है बशर्ते आप उसकी झोली में थोडा़ सा प्यार उंडेल दे उस थोड़े से प्यार का बोनस आप जिंदगी भर पाते रहेंगे वो विशुद्ध भावों का पुलिंदा है वो ईश्वर की नायाब कृति है क्योकि ऐसा इंसान  अब लुप्त प्रायः है मै मिली हूँ ऐसे ही एक इंसान से गर मिलो कभी तुम भी तो ख्याल रखना भावों पर कभी संदेह न करना कलेजे को नजरअंदाज न करना थाम लेना उसकी हँसी आँखों के पानी को पहचान लेना गर मिलो तो बस....इतना ख्याल रखना मैं मिली हूँ ऐसे ही इंसान से

सीमित रहना

तुम खुद को सीमित कर लो वरना तुम्हारा फैलाव  तुम्हे बहा देगा खुद से दूर समंदर मत बनना चाहो नदी झरना भी मत बनो तुम्हारे गालों पर एक खारापन है बस वही तुम्हारे हिस्से का सागर है आँखों में झरती एक नदी है इतनी ही छोटी रखो अपनी दुनिया छूटती चीजों को  थामने की कोशिश मत करो दूर तक जाते हुए धुंधले होते लम्हों को मत पकड़ो जो है तुम्हारे भीतर  बस, उसी तक सीमित रहो जो नहीं है तुम्हारा वहाँ तक विस्तृत होने की  कोशिश मत करो अपने किनारों को किसी ओर किनारों से मत सटाओ कुछ नहीं मिलेगा सिवाय खुरदुरेपन के 

अनकंडीशनल लव

अक्सर होता है कि हम लोगो को मतलब अपने प्रिय लोगो को बांधकर रखना चाहते है .....हर वक्त उनका सामिप्य चाहते है क्योकि हम उनसे प्यार करते है। क्या यह सच में प्यार है ?          हम उनकी हर बात मानते है। उनको खुश रखने की कोशिश करते है। उनकी गलत बातों को नजरअंदाज कर जाते है बिल्कुल उसी तरह जैसे एक माँ को अपने बच्चें की गलतियां कभी दिखती ही नहीं है । क्या यह है अनकंडीशनल लव ?         आप किसी के आँसू नहीं देख सकते क्योकि आप उनसे प्यार करते है । आप उनके लिये हर वो काम करते है जो उनकी आँखों को नम होने से बचाये रखे । आप दुनियां के हर बदरंग से उन्हे बचाकर रखते है। उनकी हर तमन्ना आपकी अपनी इच्छा बन जाती है।  प्रेम की क्या यही परिभाषा है ?        अब एक बार खूद को विराम देकर ऊपर की बातें फिर से पढ़े....और स्वयं से सवाल करे.....यह प्यार है या मोह ? बंधन है या स्वतंत्रता ? निर्भरता है या उंमुक्तता ?          हालांकि मुझे इतना ज्ञान नहीं है कि मैं इतने प्योर इमोशन या भाव की व्याख्या कर पाऊँ ।  बस...अपने अनुभवों से जाना है , सीखा है, समझा है। ऊपर लिखी सब चीजे मैंने अपनों के लिये की....उनकी आँखों की चमक, मु

ख़्वाहिश

अगर कभी भी आपके मन में एक ख्वाहिश उठती है एक जगह टिक बैठने की तो समझ लीजिये  आप सुकून में है किसी काम में आपका मन इतना रम जाता है कि आप ध्यानमग्न हो जाते है किसी एक इंसान का सामिप्य  अगर आपको  हर बार कम पड़ जाता है तो समझ लीजिये आप प्रेम में है किसी एक व्यक्ति के अहसास में आप जीवन गुजार सकने की ख्वाहिश में है तो यकीकन यह प्रेम है लेकिन अगर आपका मन रमता नहीं है टिकता नहीं है दस दिशाओं में भागता है एक हाथ से होकर दूसरे साथ से गुजरता है एक अधुरे काम से दूसरी पूर्णता को छूता है और बहुत जल्दी गर उकता जाते है आप किसी भी काम से किसी भी इंसान से तो यकिन मानिये आप अधर में है  तनिक ठहर कर खंगालिये खुद को पहले खुद को स्थिर कीजिए फिर स्थिरता तलाशिये काम मे  इंसान में

मनुहार

लंच बहुत बढ़िया रहा....... मेरे बड़े से परिवार के लगभग सभी सदस्य हमारे साथ थे....लगभग 60 लोग। शाम चार बजे तक धीरे धीरे सब लोग चले गये। पीछे का बिखरा सब बाइंड अप करने हम दोनो वही रुक गये।  हम दो दिन रुकने वाले थे इसलिए पता था कि मैं आराम से साफ सफाई कर सकती हूँ । मैंने आराम से सामने वाले खड़े विशालकाय पहाड़ को भरपूर निहारा और तब तक देखती रही जब तक कि अंधेरा नहीं घिर आया। नयी जगह थी इसलिए नींद बहुत अच्छी नहीं आयी। अलसुबह ही मैं उठकर बाहर आ गयी और चहचहाने की आवाज मुझे स्फूर्ति दे गयी। मैंने चाय बनायी और स्विमिंग पूल के पास आकर बैठ गयी और सुर्योदय तक बैठी रही।       नाश्ते के लिये हम लोग मेथी के पराठें लाये थे और ब्रेड भी थी । एक और चाय के साथ उन्हे पेट में जगह दी। अभी कुछ छोटे मोटे काम बाकी थे घर के ....तो उन्हे पूरा करने कुछ लोग आ गये। पास ही पाँच सौ की आबादी वाला गाँव है वहां से मजदूर आये थे घास काटने जिनमे से तीन महिलाएं थी। एक महिला से मैंने घर में झाड़ू पौछा लगवाया और उसके परिवार के बारे में बात की। हालांकि मुझे मराठी बोलना नहीं आता और उसे हिंदी बोलना नहीं आता लेकिन हमारा वार्तालाप बहुत आ

विदा

जब कोई आपके जीवन में बहुत सारे प्यार के साथ दस्तक देता है तो आप खिल जाते है बसंत सा महकने लगता है जीवन लेकिन जब विदा का वक्त आता है तो क्यो विदा नहीं दे पाते ? जब आगमन का स्वागत था  तो विदा का क्यो नहीं ? याद रखिये  बसंत अपने पीछे हमेशा  पतझड़ लेकर आता है आप स्वागत करे या न करे उनका आना तय है तो सीखिये प्रकृति से विदा बोझिल नहीं होनी चाहिये विदा भारी मन से नहीं होनी चाहिये विदा ऐसी हो जैसे बसंत खूद को झर देता है  पतझर के लिये बिना शोक बिना गिला बिना शिकायत 

समय

समय बिताना समय जाया करना समय में शामिल करना तीनों अलग अलग बातें है अगर किसी के साथ ऊपरी तौर पर समय व्यतीत किया है  तो वो शायद निरर्थक रहा लेकिन किसी को... किसी को भी अगर कुछ वक्त लिये भी  आपने अपने समय में शामिल किया है  तो वो समय जाया नहीं होता बल्कि कमाया होता है  जो लौट लौट आता है  लेकिन सिर्फ जेहन में, असल में नहीं वैसे जरुरी नहीं कि  दोनो पक्ष ऐसा ही सोचे हो सकता है कि किसी एक ने कमाया हो किसी एक ने गंवाया हो  किसी के लिये अफसोस होता है  वो बीता वक्त तो किसी के जीवन का सत्व  इसीलिए कहती हूँ समय को लेकर सचेत रहे बीता समय  वापस लौटाया नहीं जा सकता  ये वो इंवेस्टमेंट है जिसे आप अपनी मर्जी से खर्च करते है कब, कहाँ, किस पर  सब आपकी इजाजत से होता है जिस पर समय के जाया करने का आरोप होता है  हो सकता है किसी पल उसने आपको अपने समय में शामिल किया हो 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

अमरत्व

एक क्षणिक संपर्क जो ठहर जाता है  जीवन भर को एक व्यक्तित्व जो विलिन हो जाता है   आपके व्यक्तित्व में  एक क्षणभंगुर सा साथ जो स्थापित हो जाता है  एक गहरे कोने में ये कोने सदैव  झिलमिलाते है  दुआओं से प्रार्थनाओं से  शुभकामनाओं से स्नेह से कितना अपवाद है ना क्षणभंगुरता के साथ  जैसे अमरत्व का आभास 

पहाड़

जब जब पहाड़ों को देखती हूँ उनकी विशालता उनके वजूद के आगे खुद को बौना महसूस करती हूँ अपना कद पहचानने लगती हूँ गुरूर को मिटते देखती हूँ अक्सर मैं पहाड़ों से बतियाती हूँ वो खड़े रहते है स्थितप्रज्ञ की तरह सीना ताने ऊँचाई की ओर प्रखर मौसम की हर मार सहते न जाने कब से किसके इंतजार में  आसमान तकते न जाने क्या क्या मुझे सीखा देते इनकी ऊँचाई मुझे लालायित करती एक दिन  एक ऊँचा सा पहाड़ मुझसे बोला ऊँचाई देखती हो मेरी कभी देखा है  जमीं में मैं कितना धँसा हुआ शायद इस ऊँचाई से भी अधिक  मैं स्तब्ध थी उस पहाड़ की प्रखरता, उसकी ऊँचाई कही अधिक ऊँची थी अब और मेरा बौनापन कही अधिक बौना

दिल वर्सेस दिमाग

उस रात वो बहुत रोयी थी कोई ठोस कारण नहीं था रोने का पर कभी कभी  होता है ना मन अचानक से भर आता है आँखे जैसे बगावत कर जाती है आपके सेंस ऑरगन  आपकी मर्जी के बिना  स्वतः ही संचालित होने लगते है आप आँखों को झरने से रोकते है बार बार अन्तर्मन में गुंजती एक आवाज आपके न चाहने के बावजूद आपके कानों में घुलती रहती है आपकी उपरी परत  एक अपनत्व से पुलकित होती रहती है एक खुशबु आपकी पैरहन को ताउम्र महकाती रहती है हर वो चीज होती रहती है जो आप नहीं चाहते आपका मस्तिष्क भी नहीं चाहता  क्या सच में दिल, दिमाग पर भारी होता है ?

अन्तर्मन की ओर

माना कि मुखरता स्वभाव है लेकिन कभी कभी इसे अंदर की ओर समेटना होता है अक्सर हम  बाहरी दुनिया में रमने लगते है लोगों को जानने समझने की चेष्टा में कही न कही खुद को समझ से परे कर देते है निकल जाते है दूर  एक ऐसी राह पर जहाँ जमावड़ा होता है तथाकथित अपनों का जहाँ हम सबको पाते है सिवाय खुद के खुद को भुलकर भी  मन संतुष्ट होता है  कि हम अपनों के बीच है लेकिन एक वक्त पर इस भ्रम को टूटना होता है अपनों पर आश्रित होने के बजाय हमे खुद को पुकारना होता है स्वयं को पाना होता है दूर गयी राह से लौट आना होता है खुद को भीतर ही भीतर समेटना होता है कछुए की भाँती एक खोल में, एक मजबूत खोल में.... अपने स्वं को स्थापित करना होता है हमे पाना होता है खुद को हमे अन्तर्मन की ओर मुखर होना होता है

उन्मुक्तता

मैं संपूर्ण नहीं थी पर मैं सही थी बहुत सी जगहों पर मेरा सही  तुम्हारे लिये गलत था तुम्हारा सही मेरे लिये गलत था सही, गलत नहीं हो पाया गलत, सही नहीं हो पाया और  हम खड़े रहे  अपने अपने छोर को पकड़े ना डोर तुमने छोड़ी ना डोर मैंने छोड़ी बंधी रही मैं कही न कही उसी छोर से लेकिन जानती हूँ मैं मुझे किनारे पर ही रहना है जब चाहूँ तब डोर छोड़ सकू मुझे डोर को पकड़कर  तुम तक आने की जरुरत नहीं अपनी उन्मुक्तता भी इतनी ही प्रिय है मुझे जितना कि तुमसे जुड़ा यह छोर 

सपना

तुम्हे पता है 'नीरज' कहते है कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करते है सच पुछो तो सपने भी कहा मरते है ये अलग बात है कि पूरे नहीं होते  लेकिन उन्हे देखना हर बार सुखद होता है इन सपनों में एक पुरा जीवन होता है सिर्फ तुम्हारा जीवन तुम्हारा सपना जिसका कोई साक्षी नहीं कोई भागीदार नहीं नितांत अकेला एकछत्र  एकांत में मुसकाता सा जो पुरा ना होकर भी  टिमटिमाता है तुम्हारी आँखों में  आजीवन सहेजा जाता है अंतस के अंतिम छोर में 

चक्रव्यूह

जिससे आप प्यार करते हो उसे कभी बददुआ नहीं दे सकते बाहर से कड़वा बोल सकते है पर अंदर की ओर एक मीठा लबालब झरना होता है आप उनकी गलतियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते आप टोकते है उन्हे उनकी हर गलती पर दिशाहीन राहों पर बढ़ने नहीं दे सकते नहीं देख सकते उन्हे परेशानियों से जुझते हुए आप आगाह करते है उन्हे भावी चक्रव्यूहों के बारे में लेकिन फिर भी अक्सर होनी को होना रहता है स्नेह प्यार को हारना होता है आप स्तब्ध रह जाते है और  एक चक्रव्यूह सब निगल जाता है जिसमे आप स्वयं भी होते है

मौन

वो मूक रही बहुत बार बहुत जगह कभी प्रश्न का औचित्य नहीं समझ पायी इसलिए निरुत्तर रही कभी कुछ कड़िया नहीं जोड़ पायी उस वार्ता की, जो हो नहीं पायी जबकि वो करना चाहती थी कभी शब्द गले में अटक कर रह गये उसके लाख चाहने के बावजूद वो पलायन कर गये  अक्षर अक्षर जोड़कर उसने एक वाक्य बनाया जिसे कोई पढ़ नहीं पाया फिर उसने कई वाक्य बनाये और कविताएं रच डाली उसके मन में डोलती रहती है ऐसी हजारों कविताएं जिन तक कोई पहूँच नहीं पाता इसलिए उसने मौन चुना एक ऐसा संवाद  जो हजार वार्ताओं पर भारी पड़ा   

हलाहल

उसका घाव नासूर है जो भरेगा नहीं कभी उसके गले में हलाहल है जो नीचे उतरेगा नहीं कभी उसके ह्रदय में सिर्फ प्रेम है जो बाहर निकलेगा नहीं कभी  #क्षणिका

चॉकलेट

चॉकलेट राहत देती है मन को खुश करती है लो बीपी में मदद करती है कमजोरी में ऊर्जा देती है चॉकलेट डोपामाइन होती है जो शरीर में खुशी की तरंग को छेड़ देती है चॉकलेट मुहँ में यूँ पिघलती है जैसे घुलता है मक्खन  चॉकलेट इजहार होती है प्यार में इकरार होती है तकरार में इंकार होती है समझो तो हर बात का इलाज होती है बात बस इतनी सी है हर वक्त अपनी बायीं जेब में  चॉकलेट के कुछ टुकड़े रखो सुना है कि.... आज चॉकलेट डे है

मित्रता

रावण मुस्कुराते हुए बोला,                                        "राम, मैं सिर्फ महादेव के प्रति ही मित्रता के भाव से भरा हुआ हूँ । महादेव के अलावा किसी भी अन्य का मेरे मित्रभाव में प्रवेश निषिद्ध है, फिर वह भले ही महादेव को ही क्यो न प्रिय हो इसलिये तुम्हे कभी भी रावण की मित्रता नहीं मिलती। मेरे निदान के लिये महादेव ने तुम्हारा चयन किया है राम,क्योंकि महादेव अपने इस अतिप्रिय शिष्य को मृत्यु नहीं, मुक्ति प्रदान करना चाहते हैं।" ये पंक्तियां आशुतोष राणा सर की लिखित किताब "रामराज्य" से है।  पिछले हफ्ते ही मैंने इस किताब को मंगाया है। सोचा था कि पूरी किताब पढ़ने के बाद कुछ लिखूँगी लेकिन पहला पृष्ठ पलटते ही उपरोक्त पंक्तियां पढ़ने मिली। रावण द्वारा कहे इन सुंदर शब्दों से मन विभोर हो गया। मित्रता की जो गहन गूढ़ बात यहां कही गयी है मैं उससे पूरी तरह सरोकार रखती हूँ। रावण कहते है कि उनके इष्ट महादेव के प्रति वे मित्रभाव रखते है और दूसरा कोई उसके समकक्ष आ भी नहीं सकता।        कितने अटल विश्वास से वह यह बात कह देते है और सच मानिये आपका सखा भाव सार्थक भी इसी तथ्य से होता है। मित

अनाहत

तुम्हारे ह्रदय में  स्थित है एक लौ जो अदृश्य है क्योकि तुम महसूस नहीं कर पाते उसे तुम्हारे संवेगो के चलते भय की गुंजन से बस वो एक अनवरत स्पंदन में है अनियंत्रित रुप से धड़कती  तुम्हारी धड़कने तुम्हे डरा देती है उस लौ को बुझा देती है छलनी है तुम्हारा ह्रदय  क्योकि ये आहत होता रहता है कभी सोचा है सीने के इस मध्य भाग को  अनाहत चक्र कहते है तो बस.... अब से मान जाओ कि  अनाहत को कोई आहत नहीं कर सकता व्यर्थ है तुम्हारा भय 

खुदी को बुलंद कर

कौन है जो इस जग में कभी हारा नहीं जीता वही जो हार कर भी थमा नहीं बहकते कदमों को साधकर ध्येय को ठानकर कमजोरियों को भांपकर परिस्थितियों को ढापंकर मुसीबतों को पार कर  तू बस जुड़ते जाना कौन है ऐसा जो कभी टुटा नहीं खूद पर विश्वास रख ना किसी से आस रख अपनी कथनी का करनी से मिलान कर जो चाहेगा वो पायेगा कौन है ऐसा जो अनचाहा कभी हुआ नहीं खुदी को बुलंद कर अडिग अपने हौसलें कर बेपरवाही छोड़कर  जी उनके लिये  जो जीते है तुझे देखकर कौन है ऐसा जिसने अपना कभी खोया नहीं जो छूट गया उसका मोह क्या पल जो खिसक गया  उसका गम क्या भ्रम से बाहर निकल कौन है जो इस जग में कभी छला नहीं जीवन को सम्मान दे स्वं को मान दे अभिमान है तू कितनों का  बस, कुछ चीजों को विराम दे

कोविड

वो फरवरी का महीना था....मौसम इश्क़ से सराबोर था । फागुन की मस्ती फि़जाओं में रंगों के साथ घुलने की तैयारी में थी। कोरोना का भय लगभग खत्म सा हो चुका था। सभी अपनों से गले भी मिलने लगे थे। हाँ....मास्क अभी भी चेहरों पर थे पर अपनों की नजदीकियों के साथ।  फरवरी की जाती हुई ठंड दिल में सुकून को पसरने दे रही थी। उसी वक्त घर में एक सदस्य को कोरोना के लक्षण दिखाये दिये, जाँच करवाई और अनुमान सही निकला ...कोविड पॉजिटिव। ताबड़तोड़ घर के सभी सदस्यों ने कोविड टेस्ट करवाया। पाँच लोग पॉजिटिव आये। मैं और शगुन (बेटी) नेगेटिव थे जबकि शगुन के पॉजिटिव आने के पूरे चांसेज थे क्योकि वो उन सभी के लागातार संपर्क में थी । हमारे घर पर हम तीन लोगो में से सिर्फ पति ही पॉजिटिव थे इसलिये उन्हे आइसोलेटे कर दिया और तमाम सावधानियां बरती गयी। वे बहुत तेजी से रिकवर हो रहे थे और लक्षण भी माइल्ड थे ...सो चिंता अधिक नहीं थी। आठ दिन बाद मेरी दोनो आँखे अचानक बहुत तेज दर्द करने लगी। दर्द इतना तीव्र था कि जैसे किसी ने पलकों के आर पार सुई निकाल दी हो । मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। घर वालों ने हिदायत दी कि मोबाइल का इस्तेमाल कम किया जा

विश्व कविता दिवस

आज विश्व कविता दिवस है।  मुझे याद है मैंने अपनी पहली कविता कक्षा दसवीं में लिखी थी ....सिर्फ लिखने के लिये लिखी थी मतलब मुझे कविता लिखनी है, बस, यही भाव था। वो दिल के जज्बातों से नहीं निकली थी। वो निकली थी कुछ कठिन और क्लिष्ट हिंदी के शब्दों के जमावड़े से । भाषा का सौंदर्य और शुद्धता पर पूरा ध्यान दिया लेकिन मुझे कहने में संकोच नहीं कि मेरी पहली कविता भावहीन कविता थी।       कुछ दिनों बाद मैंने दूसरी कविता लिखी जो एक लोकल न्यूज पेपर में छपने के लालच में लिखी और वो छपी भी। उस कविता में थोड़े उर्दू के शब्द थे।        फिर मैं लागातार लिखने लगी, आसपास की समस्याओं पर लिखने लगी ।         शादी के बाद लिखना बहुत कम या ना के बराबर हो गया । जज्बात उठते थे पर कलम चलती नहीं थी ....अंतर्मुखी कलम थी मेरी 😜।        2011 में ब्लॉग बनाया और अनियमित रुप से लिखने लगी। कभी भाषाई सौंदर्य होता था तो कभी भाव पर। कुछ सालों पहले अकस्मात रुप से मम्मी को खो दिया....ब्रेन ट्यूमर ....बहुत रेयर वाला। यह खोना बहुत आघात दे गया। तब से मैं जो भी लिखती हूँ, सिर्फ और सिर्फ भाव होते है शब्दों का जामा पहने। कभी मेरे अपने अंद

चिड़िया

बचपन में  मेरे आँगन में बहुत आती थी याद है मुझे ट्युब लाइट पर रोशनदान पर  तिनका तिनका लाकर घोसला बनाती थी अपने बच्चों को अपनी नन्ही चोंच से खाना खिलाती थी बच्चों के पर निकलते ही वे फुदकने लगते थे कभी कभार नीचे गिर जाते थे तब उन बच्चों को  हम बच्चे  आटा घोलकर खिलाया करते थे उनकी माँ चिड़िया को बड़ा गुस्सा आता था बच्चें बड़े हो उड़़ जाते थे घोसलें खाली हो जाते थे लेकिन आँगन में चिड़िया रोज आती थी हम कविताएं भी चिड़ियों की गाते थे खेल में भी चिड़िया होती थी तोता उड़़, चिड़िया उड़  खेलकर अपना बचपन जीते थे गुलजार था बचपन इन चिड़ियों से लेकिन अब न घोसले है, न आँगन है और ना ही चिड़िया अब बचपन भी कहाँ गुलज़ार है

हिंदी

आज विश्व हिंदी दिवस है ......हिंदी की बढ़ती लोकप्रियता हमे खुश कर देती है...सच में...दिल से खुश। पर एक बात कहूँ.....हमारे देश में ऐसे बहुतेरे नमुने अब भी है जो अंग्रेजी को इंटैलीजेंसी से तोलते है 🤦🤦🤦          हिंदी को लेकर मेरे पास कई किस्से है जो सच में हिंदी से मेरे प्रेम को बढ़ा देते है।एक दो किस्से आप लोगो से शेयर करना चाहूँगी..... 1. उस वक्त शायद मैं 10वीं कक्षा में थी....हिंदी मीडियम की लड़कियों की सरकारी स्कूल में पढ़ती थी । हम सब स्कुल की तरफ से समर ट्युर पर जाना चाहते थे क्योकि दूसरी एक और स्कुल अपनी छात्राओं को ऐसे ट्यूर कराती थी। सबने मिलकर तय किया कि प्रिंसिपल के पास जाकर बात की जाये और उन्हे प्रार्थनापत्र दिया जाये। प्रार्थनापत्र लिखा मैंने 😎😎 और मुझे मिलाकर चयनित पाँच छात्राएं प्रिंसिपल से बात करने गयी। हमने उन्हे सबसे पहले ऐप्लिकेशन थमा दी ( यहाँ बता दूँ कि उस सेशन की हमारी वो प्रिसिंपल बड़ी सख्त मिजाज थी ) और डरते हुए हम पाँचों उनके रियेक्शन देखने लगी। उन्होने उसे पढ़ा और नाक पर गिरे चश्मे से हमे घूरते हुए पूछा कि ऐप्लिकेशन किसने लिखी है?       मैं डरते डरते आगे आयी तो उ