संदेह के बादलों से भय की हो रही है बारिश चू रही है छत सील रहा है सब कुछ बन रही है चिन्ता की रेखायें मेरे ललाट के आस पास लेकिन मन के एक कोने में दूर कही सुनहरी धूप खिलने को है जो हटा देगी घने बादलों को रोक देगी बरसते पानी को क्योकि एक नया इंद्रधनुष बनने को है फिर भी ना जाने क्यो अनजाना सा लग रहा है क़यास कभी बिखर तो कभी बंध रही है मेरी आस मन ही नहीं अब तो मेरी चौखट भी रहने लगी है उदास क्योकि पल पल कर रहा है छलनी मुझे मेरी माँ को खोने का अहसास
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है