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सितंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

समय

समय बिताना समय जाया करना समय में शामिल करना तीनों अलग अलग बातें है अगर किसी के साथ ऊपरी तौर पर समय व्यतीत किया है  तो वो शायद निरर्थक रहा लेकिन किसी को... किसी को भी अगर कुछ वक्त लिये भी  आपने अपने समय में शामिल किया है  तो वो समय जाया नहीं होता बल्कि कमाया होता है  जो लौट लौट आता है  लेकिन सिर्फ जेहन में, असल में नहीं वैसे जरुरी नहीं कि  दोनो पक्ष ऐसा ही सोचे हो सकता है कि किसी एक ने कमाया हो किसी एक ने गंवाया हो  किसी के लिये अफसोस होता है  वो बीता वक्त तो किसी के जीवन का सत्व  इसीलिए कहती हूँ समय को लेकर सचेत रहे बीता समय  वापस लौटाया नहीं जा सकता  ये वो इंवेस्टमेंट है जिसे आप अपनी मर्जी से खर्च करते है कब, कहाँ, किस पर  सब आपकी इजाजत से होता है जिस पर समय के जाया करने का आरोप होता है  हो सकता है किसी पल उसने आपको अपने समय में शामिल किया हो 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

अमरत्व

एक क्षणिक संपर्क जो ठहर जाता है  जीवन भर को एक व्यक्तित्व जो विलिन हो जाता है   आपके व्यक्तित्व में  एक क्षणभंगुर सा साथ जो स्थापित हो जाता है  एक गहरे कोने में ये कोने सदैव  झिलमिलाते है  दुआओं से प्रार्थनाओं से  शुभकामनाओं से स्नेह से कितना अपवाद है ना क्षणभंगुरता के साथ  जैसे अमरत्व का आभास 

पहाड़

जब जब पहाड़ों को देखती हूँ उनकी विशालता उनके वजूद के आगे खुद को बौना महसूस करती हूँ अपना कद पहचानने लगती हूँ गुरूर को मिटते देखती हूँ अक्सर मैं पहाड़ों से बतियाती हूँ वो खड़े रहते है स्थितप्रज्ञ की तरह सीना ताने ऊँचाई की ओर प्रखर मौसम की हर मार सहते न जाने कब से किसके इंतजार में  आसमान तकते न जाने क्या क्या मुझे सीखा देते इनकी ऊँचाई मुझे लालायित करती एक दिन  एक ऊँचा सा पहाड़ मुझसे बोला ऊँचाई देखती हो मेरी कभी देखा है  जमीं में मैं कितना धँसा हुआ शायद इस ऊँचाई से भी अधिक  मैं स्तब्ध थी उस पहाड़ की प्रखरता, उसकी ऊँचाई कही अधिक ऊँची थी अब और मेरा बौनापन कही अधिक बौना

दिल वर्सेस दिमाग

उस रात वो बहुत रोयी थी कोई ठोस कारण नहीं था रोने का पर कभी कभी  होता है ना मन अचानक से भर आता है आँखे जैसे बगावत कर जाती है आपके सेंस ऑरगन  आपकी मर्जी के बिना  स्वतः ही संचालित होने लगते है आप आँखों को झरने से रोकते है बार बार अन्तर्मन में गुंजती एक आवाज आपके न चाहने के बावजूद आपके कानों में घुलती रहती है आपकी उपरी परत  एक अपनत्व से पुलकित होती रहती है एक खुशबु आपकी पैरहन को ताउम्र महकाती रहती है हर वो चीज होती रहती है जो आप नहीं चाहते आपका मस्तिष्क भी नहीं चाहता  क्या सच में दिल, दिमाग पर भारी होता है ?