कभी देखा है ध्यान से इन रिमझिम बरसती बुंदों को कभी महसूस किया है धरा के तृप्त मन को यूँ तो आसमाँ धरती से मिल नहीं सकता बस, एक भ्रम होता है उनके मिलन का दूर कही क्षितिज में लेकिन.... जब, यह वियोग चरम पर होता है धरा तप्त होती है आकाश भी तप कर तड़पता है तब कही पसीजता है एक कोना और..... बरखा की बुंदें लाती है प्रेम संदेशा बादलों का...तब धरा नाचती है बिल्कुल यूँ जैसे गरम तवे पर थिरकती है पानी की एक बुंद एक लय के साथ..... उसी लय और ताल के साथ करोड़ों बुंदें , जब मिलने आती है जमीं की ओर तो प्रकृति उत्सव मनाती है मिलन का....और तप्त धरा तृप्त होती है
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है