नफ़रत से भरे
तुम्हारे कड़वे शब्दों
को कुरेद कर
स्नेह से सींच
अमृत समझ
धारण कर लिया
सदा सदा के लिये
उगलो तो ज़हर
निगलो तो ज़हर
इसलिये सजा लिया
बिल्कुल नीलकंठ की तरह
अपने कंठ में
अब ये नीली सी आभा
मेरे कंठ की
पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा चिनार और पिता
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-02-2020) को "नीम की छाँव" (चर्चा अंक-3616) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद सर
हटाएंबहुत खूब, नीलकंठ को हमारे दिलों में इस तरह समा देने के लिए आपका आभार आत्ममुग्धा जी
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