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नवंबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

धिक्कार है

खुशी होती थी उसे  अपने वजूद पर मूक जानवरों की पीड़ा समझती थी वो स्नेह से दुलारती भी थी शायद लेकिन नहीं जानती थी वो, कि जानवर तो मूक होता है स्नेह की भाषा समझ जाता है लेकिन खतरनाक होता है वो जानवर जो बोलता है एक मानवीय भाषा पर, जो स्नेह नहीं, जिस्म समझता है  जरा सोच कर देखो..... कितना दर्द सहा होगा उसने पहले आत्मा को रौंदा गया फिर शरीर को..... कहते है दर्द का एक मापदंड होता है  जिसमे शायद  दूसरे नम्बर पर प्रसव पीड़ा आती है जो सिर्फ स्त्री के हिस्से आती है स्त्री सहर्ष इसे सहती है  सृष्टि रचती है लेकिन सुनो मैंने कही सुना है, कि पहले पायदान पर आता है देह को जीवित जला देने वाला दर्द ये दर्द नहीं था उसके हिस्से में फिर क्यो जली उसकी देह ? विघ्नहर्ता थे उसके गले में क्यो उसके विघ्न हर न सके ? डरते डरते बात करते हुए उसने फोन रख दिया क्यो डर हावी था उस पर ?  अरे ! तब तो 12 भी नहीं बजे थे और न ही था उसके साथ कोई तथाकथित दोस्त जिसके आधार पर  उसका कोई चरित्र निर्माण किया जा सके  अब तो  कोई लांछन भी नहीं लगाया जा सकता उस पर  फिर क्यो वो तिल तिल मरी ? अब मीडिया उसके घर जायेगा उसकी बहन को कुरेदेगा उस

अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस

सुनो तुम्हारा होना मायने रखता है भले ही   तुम दिखा नहीं पाते जज्ब़ात पुरुष हो न स्त्री की तरह कमजोर नहीं दिखा पाते खुद को तुम्हे मजबूत बना रहना होता है चाहकर भी कोमलता नहीं दिखा पाते नहीं तरल होती तुम्हारी आँखें आखिर पुरुष हो तुम्हारी दाढ़ी मुछों तले छुप जाता है सब सारे भाव, सारी संवेदनाएं तुम संवेदनशील नहीं हो सकते क्योकि तुम पुरूष हो सुनो.... किसने बनाये ये नियम ? कौन रचता है अलग ये रचनाएं कहाँ अलग हो तुम धड़कता है एक दिल तुममे भी चुपके से छलकती है आँखे तुम्हारी भी कचोटती है अंतर्आत्मा तुम्हारी भी चिल्लाना चाहते हो तुम भी सुनो..... मैं चाहती हूँ तुम्हारे हिस्से का थोड़ा सा पुरूष बनना थोड़ा सा महसूसना तुम्हे तुम भी थोड़ा सा मेरा स्त्रीत्व ले लेना जी लेना कोमल भावनाओं को और बह जाना उनमे सुनो..... हम प्रतिस्पर्धी नहीं पूरक है 

मौन

मौन...... एक ऐसी भाषा जिसकी कोई लिपि नहीं और कोई शब्द नहीं,फिर भी सर्वश्रेष्ठ भाषा।जिसने इस भाषा को समझ लिया,मान लिजिये कि जीवन की गहराई को समझ लिया।जिस तरह से समुद्र की गहराई में छुपे बेशकिमती हीरें मोती पाने के लिये उस गहराई तक उतरना पड़ता हैं बिल्कुल इसी तरह जब हम मौन रहते है तो अपने अन्तर्मन के समुद्र में गोते लगाते हैं और बहूत कुछ अपने मन का ऐसा निकाल लाते है जो अब तक मन के किसी कोने में दफन था।वास्तव में मौन के दौरान हम अपने आप को पुन:र्जीवित करते है। यह एक ऐसी तकनीक है जो हमे रिचार्ज करती है।                   हालांकि मैं स्वयं बचपन में बहूत बातुनी थी,नि:सन्देह अभी भी हूँ,लेकिन पता नहीं क्यों,ये मौन हमेशा मुझे अपनी तरफ खिंचता हैं।सालों पहले जब मैंने एक कोर्स किया था,तब पहली बार इसका स्वाद चखा था,तब से लेकर आज तक कोशिश ही करती रही हूँ इसमे डूब जाने की,इसमें उतर कर कुछ बेशकिमती पा जाने की........ .....लेकिन मेरी कमजोरी कहिये या फिर मजबूरी,मुझे बोलना ही पड़ता हैं।हाँ इतना जरुर हैं कि इसे पाने की ख्वाहिश ने मुझे मितभाषी तो कुछ हद तक बना ही दिया,अपने आप से मिलने की जुस्तजूं ने मुझे ठ

बरगद

उसने सबको खुली हथेली पर बोया था बाँधकर संजोना नहीं आता था उसे मुठ्ठी बाँधना भी तो न जानती थी वो फिर भी...... वो लोग सिमटे रहे  उसी हथेली में जबकि वो देना चाहती है उन्हे उनके हिस्से की जमीं और एक बड़ा सा आसमां जहाँ वो अपनी जड़े फैला सके लंबी उड़ान भर सके  वो खूद बरगद है चाहती है  हथेली पर अंकुरित  नन्ही पौध को बरगद बनाना