मन की ज़मीं पर कुछ नमक की डलियाँ थी ना जाने कब आई कहाँ से आई पता ही नहीं चला कब मैं इस नमकीन से स्वाद को अपनी नियती मान बैठी लेकिन अबकि, जब बरसा पानी जम के ये नमकीन सी डलियाँ क़तरा सा पिघली एक दिन दो दिन तीन दिन हफ़्तों तक बरसता रहा पानी नमी पाकर नमक भी पिघल गया पूरा का पूरा और जब धुप निकली तो ना नमक था ना कोई निशाँ ठंडी हवा ने मन को छुआ दिल खिल गया ना जाने कहाँ से ये हवा ले आई एक बीज नन्हा सा और गिरा दिया मन की ज़मीं पर अब नमकीन डलियों की जगह कुछ अंकुरित होगा मीठा सा.... बिल्कुल मिश्री की डली सा
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है