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उन्मुक्तता

मैं संपूर्ण नहीं थी
पर मैं सही थी
बहुत सी जगहों पर
मेरा सही 
तुम्हारे लिये गलत था
तुम्हारा सही मेरे लिये गलत था
सही, गलत नहीं हो पाया
गलत, सही नहीं हो पाया
और 
हम खड़े रहे 
अपने अपने छोर को पकड़े
ना डोर तुमने छोड़ी
ना डोर मैंने छोड़ी
बंधी रही मैं
कही न कही उसी छोर से
लेकिन जानती हूँ मैं
मुझे किनारे पर ही रहना है
जब चाहूँ तब डोर छोड़ सकू
मुझे डोर को पकड़कर 
तुम तक आने की जरुरत नहीं
अपनी उन्मुक्तता भी इतनी ही प्रिय है मुझे
जितना कि तुमसे जुड़ा यह छोर 

टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ अगस्त २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह ..... स्वास्तित्व का होना भी ज़रूरी । अन्यथा स्वयं को मिटा कर संपूर्णता नहीं मिल सकती ।बेहतरीन ।

    जवाब देंहटाएं
  3. सत्य के कई पक्ष होते हैं, अपना सत्य दूसरे का भी हो सकता है। सुन्दर भाव।

    जवाब देंहटाएं
  4. अपनी उन्मुक्तता भी इतनी ही प्रिय है मुझे
    जितना कि तुमसे जुड़ा यह छोर ---वाह शब्दों और मनोभावों का ऐसा सुंदर तारतम्य...। अच्छी और बेहद गहनतम रचना...।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर शब्द भाव से परिपूर्ण रचना।

    जवाब देंहटाएं
  6. सही, गलत नहीं हो पाया
    गलत, सही नहीं हो पाया
    तुम्हें मुबारक तुम्हारे विचार ....
    अपनी उन्मुक्तता भी इतनी ही प्रिय है मुझे
    जितना कि तुमसे जुड़ा यह छोर
    और काफी है एक छोर से दूसरे छोर का यह जुड़ाव....दोनों के अस्तित्व के साथ
    वाह!!!
    लाजवाब सृजन।

    जवाब देंहटाएं

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