दिसम्बर की सर्द हवा थी
जहर उगलती रात थी
सायनाइड की सांसें थी
झीलों की नगरी थी
मौत का शामियाना था
हांफते पड़ते कदम थे
फेफड़ों में समाता विष था
जिंदगी की ओर
भागते लोग थे
मौत का तांडव था
सहमा सा शहर था
अट्टहास लगाता प्रेत था
पेड़ पर उलटा लटका
एक पिशाच था
रच रहा था तमाशा
लाखो को लील रहा था
विरासत में भी
हलाहल ही सौप रहा था
तीन मिनिट थे
मौत की नींद थी
जो मरे वो
भोपाल गैस कांड था
जो बचे
उनके अहसास मरे
घाव उनके आज भी हरे
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०४-१२ -२०२१) को
'हताश मन की व्यथा'(चर्चा अंक-४२६८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंहकीकत को बयां करती बहुत ही मार्मिक रचना
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