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समीक्षा

" कुछ गुम हुए बच्चे "
एक किताब जो , मेरे आस पास तो थी पर सुकून की चाहत में थी । अब जब पूरी तन्मयता से इस किताब को पढ़ रही हूँ तो लग रहा है कि यह सरसरी नजर से पढ़कर सिर्फ फोटो खिंचवाने वाली किताब नहीं है। यह किताब पिटारा है जिसने जीवन की छोटी बड़ी सभी बातों को बड़ी खूबसूरती से शब्दों में पिरो दिया है और जादूई काम को कारगर किया है सुनीता करोथवाल ने...जो कि न सिर्फ हिंदी की बल्कि हरियाणा का भी एक जाना पहचाना नाम है। 
      किताब की पहली ही कविता जैसे समाज पर प्रश्न करती है बेटियों की सुरक्षा को लेकर तो वही दूसरी कविता में सुनीता हर बच्चें के बचपन को गुलजार बनाने की बात कहती है । तोत्तोचान की गलबहियां डाल वह मातृभाषा और वास्तविक ज्ञान पर जोर देती है । इसी तर्ज पर उनकी अगली कविता है जो किताब का शीर्षक है..कुछ गुम हुए बच्चें। जब आप इस कविता को पढ़ रहे ह़ोगे तो यकिन मानिये , आप अपने बचपन से रुबरू हो रहे होंगे। भीतर कही अहसास होगा कि विकास की तर्ज पर चलते हुए , अपने बच्चों को वंडर किड्स बनाते हुए हम कितना कुछ उनसे अनजाने ही छीन रहे है। जो हमारे लिये सामान्य था वो इन बच्चों के लिये बहुत दूर्लभ है ।
     एक कविता रचती है वे, बलात्कार की घटनाओं से आहत होकर और इसका बहुत सुक्ष्म विवेचन करती है ...जो वाकई सोचने पर मजबूर करता है। 
     दो अन्य कविताओं में फिर से यह संवेदनशील कवियत्री बचपन से मुखातिब होती है और बातों बातों में बच्चों को भावनात्मक रुप से मजबूत बनाने की बात कह जाती है तो एक अन्य जगह छोटे होते परिवारों के चलते, घटते संबोधनों की बात बोल जाती है और रिश्ते नातों की अहमियत बता जाती है।
      कुछ कविताओं में वे अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि का मोह झोंक देती है तो कही प्रेम में भीगी लड़कियों का मन पढ़ती है । कही किसी के साथ उम्र का अंतिम दौर भी चटख रंग जैसा है , कही कानों में गुंजती बूढ़ी दादी की आवाज जैसे फिर से जीवंत होने लगती है ।
       सुनीता करोथवाल की कविताएं आपको याद दिलाती है , अपने गाँव की, गलियों की, बेलौस हँसी की , अपने पूराने से स्कूल की, मन में पनपते प्रेम की, पापा की परेशानियों की, कुछ छूट रही परम्पराओं की,दाम्पत्य में बंधे जीवन की। 
     कभी वे लड़कियो के प्रेम में होने की बात कहती है तो कही लड़को के प्रेम को उकेरती है । उनकी हर कविता यथार्थ को इतने प्यार से सामने रखती है कि हमारा मन उसे सहेज लेता है और हम इन कविताओं से सहमत होने लगते है। इनकी कविताओं में कही भी अतिवादिता नहीं है। जैसी सहज सरल ये लेखिका है वैसी ही इनकी कविताएं है। अगर मनन करेंगे तो हर कविता सकारात्मकता का एक डोज है ।
     अपने ग्रामीण परिवेश , पृष्ठभूमि के बावजूद उनकी नजर हर शहरी समस्या पर है जो कि काबिले तारीफ है। उनको अपने इस परिवेश पर गर्व है और ये गर्व उन्हे क्यो है, ये अपनी कविताओं के माध्यम से न सिर्फ आपको बताती है बल्कि आपकी सोच समझ को एक दिशा भी देती है।  
       यह किताब आपको गुदगुदाती है, झकझोरती है, सहेजती है।  इन कविताओं को सरसरी में मत पढ़िये, लेखिका ने बहुत सरल शब्दों में अपने मन के धागे पिरोये है जो कही न कही आपके मन के किसी कोने को अपने साथ बांध लेंगे

किताब की जानकारी :- 

यह किताब अहिसास के सुनेत्रा पांडुलिपि पुरस्कार 2020 से सम्मानित है 
प्रकाशक :-  बिम्ब-प्रतिबिम्ब प्रकाशक 
लेखक :-  सुनीता करोथवाल
आवरण :- संगीता जाँगिड़ 
मूल्य :-   ₹160

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