कितना मुश्किल होता है
किसी की सिमटी तहों को खोलना
सिलवटे निकालना
और फिर से तह कर सौंप देना
प्याज की परतों सी होती है ये, पर
प्याज की तरह नहीं खोला जाता इन्हे
एक एक परत को सहेजना पड़ता है
अंतस तक पहूँचकर
बाहर निकलते वक्त
फिर से परत दर परत को
हूबहू रखना पड़ता है
जानती हूँ ये ढ़ीठ होती है
नहीं खुलेगी आसानी से
साधक की तरह सब्र रखना होगा
लेकिन विश्वास है
खुलेगी.......
प्याज की तरह नहीं
गुलाब की पंखुड़ियों की तरह....स्वतः ही
जब पायेगी ओस की बूंदों सा स्पर्श
कुछ परतें पार कर ली
कुछ अभी भी बाकी है
अंतिम तह में दबे
कुछ ग्लानि भावों को निकाल लाना है
फिर सौंप देनी है सभी परतें ज्यो की त्यो
क्योंकि हर परत पूँजी है उसकी
नहीं अधिकार किसी को भी
बेरोक टोक आने का
मैं जानती हूँ उसे
वो मेरी ही छाया है
अंश है मेरा
नहीं अनुमति देगी प्रवेश की.....
कोई और वहाँ पहूँच कर
तहस नहस करे
उसके पहले वहाँ जाना है
करीने से सब कुछ सजा कर फिर लौट आना है
और लौटना ऐसा कि
उसकी अंतिम तह सिर्फ उसकी
बस,मैं कोशिश में हूँ
पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा चिनार और पिता
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