कितना मुश्किल होता है
किसी की सिमटी तहों को खोलना
सिलवटे निकालना
और फिर से तह कर सौंप देना
प्याज की परतों सी होती है ये, पर
प्याज की तरह नहीं खोला जाता इन्हे
एक एक परत को सहेजना पड़ता है
अंतस तक पहूँचकर
बाहर निकलते वक्त
फिर से परत दर परत को
हूबहू रखना पड़ता है
जानती हूँ ये ढ़ीठ होती है
नहीं खुलेगी आसानी से
साधक की तरह सब्र रखना होगा
लेकिन विश्वास है
खुलेगी.......
प्याज की तरह नहीं
गुलाब की पंखुड़ियों की तरह....स्वतः ही
जब पायेगी ओस की बूंदों सा स्पर्श
कुछ परतें पार कर ली
कुछ अभी भी बाकी है
अंतिम तह में दबे
कुछ ग्लानि भावों को निकाल लाना है
फिर सौंप देनी है सभी परतें ज्यो की त्यो
क्योंकि हर परत पूँजी है उसकी
नहीं अधिकार किसी को भी
बेरोक टोक आने का
मैं जानती हूँ उसे
वो मेरी ही छाया है
अंश है मेरा
नहीं अनुमति देगी प्रवेश की.....
कोई और वहाँ पहूँच कर
तहस नहस करे
उसके पहले वहाँ जाना है
करीने से सब कुछ सजा कर फिर लौट आना है
और लौटना ऐसा कि
उसकी अंतिम तह सिर्फ उसकी
बस,मैं कोशिश में हूँ
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है
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