उसने सबको
खुली हथेली पर बोया था
बाँधकर संजोना नहीं आता था उसे
मुठ्ठी बाँधना भी तो न जानती थी वो
फिर भी......
वो लोग सिमटे रहे
उसी हथेली में
जबकि
वो देना चाहती है उन्हे
उनके हिस्से की जमीं
और
एक बड़ा सा आसमां
जहाँ वो अपनी जड़े फैला सके
लंबी उड़ान भर सके
वो खूद बरगद है
चाहती है
हथेली पर अंकुरित
नन्ही पौध को बरगद बनाना
जज्बातों से लबालब है आपकी रचना।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 02 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसबसे पहले न आ पाने के लिये माफी.....मेरी रचना को स्थान देने के लिये शुक्रिया आपका
हटाएं
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप सभी को पावन दिवाली की शुभकामनाएं.....
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
03/11/2019 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
http s://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
माफी सहित शुक्रिया
हटाएंबरगद को आधार मानकर कहीं गहरे तक ले गई आपकी कविता हर पंक्तियां एक स्त्री के अंदर कशमकश भरे उठते सवालों को प्रदर्शित कर रहे हैं बहुत अच्छा लिखा आपने
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंवो स्त्री हो या मां हो या धरती हो
जवाब देंहटाएंकुछ भी समझो मगर इस बरगद के साथ आपने इसकी जड़ें मेरी नम जमीं तक पहुंचा दी है।
बहुत खूब
जज्बातों को समझने के लिये शुक्रिया
हटाएंउस हथेली के प्रेम और सानिध्य को छोड़कर कोई कहींं और क्यों जाय...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
बिल्कुल सही
हटाएंआभार आपका....न आ पाने के लिये माफी
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