सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

वो कृष्ण है

जो जीवन जीना सीखाये
हर रंग में रंग जाना सीखाये
वो कृष्ण है
जो मान दे सभी को
सबके दिलों में समा जाये
वो कृष्ण है
जो रास रचाये,बंसी बजाये
महाभारत में शंखनाद करे
वो कृष्ण है
जो यशोदा का प्यारा है
देवकी का दुलारा है
वो कृष्ण है
जो रुक्मिणी का है....पर
राधा के बिना आधा है
वो कृष्ण है

टिप्पणियाँ

Digvijay Agrawal ने कहा…
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 25 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
मन की वीणा ने कहा…
बहुत सुंदर सृजन।
कृष्ण ही मोह ... कृष्ण की माया ...
जग सारा कृष्णमय है ...
आत्ममुग्धा ने कहा…
माफी चाहती हूँ कि मैं समय पर उपस्थित नहीं हो सकी 🙏
आत्ममुग्धा ने कहा…
सादर माफी अनुपस्थिति के लिये
आत्ममुग्धा ने कहा…
कृष्ण ही कृष्ण

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

कुछ दुख बेहद निजी होते है

आज का दिन बाकी सामान्य दिनों की तरह ही है। रोज की तरह सुबह के काम यंत्रवत हो रहे है। मैं सभी कामों को दौड़ती भागती कर रही हूँ। घर में काम चालू है इसलिये दौड़भाग थोड़ी अधिक है क्योकि मिस्त्री आने के पहले पहले मुझे सब निपटा लेना होता है। सब कुछ सामान्य सा ही दिख रहा है लेकिन मन में कुछ कसक है, कुछ टीस है, कुछ है जो बाहर की ओर निकलने आतुर है लेकिन सामान्य बना रहना बेहतर है।        आज ही की तारीख थी, सुबह का वक्त था, मैं मम्मी का हाथ थामे थी और वो हाथ छुड़ाकर चली गयी हमेशा के लिये, कभी न लौट आने को। बस तब से यह टीस रह रहकर उठती है, कभी मुझे रिक्त करती है तो कभी लबालब कर देती है। मौके बेमौके पर उसका यूँ असमय जाना खलता है लेकिन नियती के समक्ष सब घुटने टेकते है , मेरी तो बिसात ही क्या ? मैं ईश्वर की हर मर्जी के पीछे किसी कारण को मानती हूँ, मम्मी के जाने के पीछे भी कुछ तो कारण रहा होगा या सिर्फ ईश्वरीय मर्जी रही होगी। इन सबके पीछे एक बात समझ आयी कि न तो किसी के साथ जाया जाता है और ना ही किसी के जाने से दुनिया रुकती है जैसे मेरी आज की सुबह सुचारु रुप से चल रही है ...