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अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस

सुनो
तुम्हारा होना मायने रखता है
भले ही  
तुम दिखा नहीं पाते जज्ब़ात
पुरुष हो न
स्त्री की तरह कमजोर नहीं दिखा पाते खुद को
तुम्हे मजबूत बना रहना होता है
चाहकर भी कोमलता नहीं दिखा पाते
नहीं तरल होती तुम्हारी आँखें
आखिर पुरुष हो
तुम्हारी दाढ़ी मुछों तले छुप जाता है सब
सारे भाव, सारी संवेदनाएं
तुम संवेदनशील नहीं हो सकते
क्योकि तुम पुरूष हो
सुनो....
किसने बनाये ये नियम ?
कौन रचता है अलग ये रचनाएं
कहाँ अलग हो तुम
धड़कता है एक दिल तुममे भी
चुपके से छलकती है आँखे तुम्हारी भी
कचोटती है अंतर्आत्मा तुम्हारी भी
चिल्लाना चाहते हो तुम भी
सुनो.....
मैं चाहती हूँ
तुम्हारे हिस्से का थोड़ा सा पुरूष बनना
थोड़ा सा महसूसना तुम्हे
तुम भी थोड़ा सा मेरा स्त्रीत्व ले लेना
जी लेना कोमल भावनाओं को
और बह जाना उनमे
सुनो.....
हम प्रतिस्पर्धी नहीं पूरक है 

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उम्मीद

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मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

कुछ दुख बेहद निजी होते है

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