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नये साल को गले लगाये

आज साल का आखिरी दिन है

गये दिसम्बर की तरह
बीत रहा ये साल भी
कुछ मलाल थे
जो अब इन पलों में रहे नहीं 
कुछ बाते अनकही सी
समेट रही है खुद को यही कही
देखो.....सुनो
हंसी है एक खनकती हुई
दूर तक सुनायी देती हुई
खुली सी बांहें है 
सफर करती हुई
कोई आवाज नहीं है 
पीछे से पुकारती हुई
बस,कुछ खुशियां है 
ओस की बूंदों सी ठहरी हुई
आओ सहेज ले इन्हे
शिकायतों की अब जगह नहीं
उदासियों की कोई वजह नहीं
रोशन हो आँखें सितारों सी
चमके चेहरा चाँद सा
होठों पर तराने आये
अपनी अपनी धून गाये
आओ, कुछ जुगनुओं को दोस्त बनाये
नये साल को गले लगाये


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पिता और चिनार

पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं  पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये  तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही  पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा  चिनार और पिता

कुछ अनसुलझा सा

न जाने कितने रहस्य हैं ब्रह्मांड में? और और न जाने कितने रहस्य हैं मेरे भीतर?? क्या कोई जान पाया या  कोई जान पायेगा???? नहीं .....!! क्योंकि  कुछ पहेलियां अनसुलझी रहती हैं कुछ चौखटें कभी नहीं लांघी जाती कुछ दरवाजे कभी नहीं खुलते कुछ तो भीतर हमेशा दरका सा रहता है- जिसकी मरम्मत नहीं होती, कुछ खिड़कियों से कभी  कोई सूरज नहीं झांकता, कुछ सीलन हमेशा सूखने के इंतजार में रहती है, कुछ दर्द ताउम्र रिसते रहते हैं, कुछ भय हमेशा भयभीत किये रहते हैं, कुछ घाव नासूर बनने को आतुर रहते हैं,  एक ब्लैकहोल, सबको धीरे धीरे निगलता रहता है शायद हम सबके भीतर एक ब्रह्मांड है जिसे कभी  कोई नहीं जान पायेगा लेकिन सुनो, इसी ब्रह्मांड में एक दूधिया आकाशगंगा सैर करती है जो शायद तुम्हारे मन के ब्रह्मांड में भी है #आत्ममुग्धा

किताब

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