वो बच्ची....
दद्दू उसे बुलाती रही
गलत उसकी नजरों को भांपती रही
ताड़ती थी निगाहे उसे
तार तार वो होती रही
कातर नजरे गुहार लगाती रही
शर्मसार इंसानियत रपटे लिखाती रही
धृतराष्ट्र राज करते रहे
हवालातों में पिता मरते रहे
बाहर औलादें सिसकती रही
न जाने किस भरोसे
वो तुफानों से टकराती रही
खेलने खाने के मनमौजी दिनों में वो
जीवन के तीखे तेवरों को
अपनी कम उम्र में पिरोती रही
रग रग, रोम रोम में
साहस को सजाकर
अदना सी होकर खासमखास से पंगा लेती रही
लेकिन.....
रसुखदारों के आगे वो टिक न सकी
उसकी लाखों की इज्जत
दो टके की बनी रही
न जाने कितने शकुनी षड्यंत्रों की
चाल में फंसती रही
हिम्मत न हारकर भी वो
अपनों को खोती रही,पर हर हाल में जुझती रही
न जाने कौन जीता, कौन हारा
खेल बिगड़ा, पासा पलटा
अब अपनी ही सांसों से वो जुझ रही
पिता चिनार के पेड़ की तरह होते है, विशाल....निर्भीक....अडिग समय के साथ ढलते हैं , बदलते हैं , गिरते हैं पुनः उठ उठकर जीना सिखाते हैं , न जाने, ख़ुद कितने पतझड़ देखते हैं फिर भी बसंत गोद में गिरा जाते हैं, बताते हैं ,कि पतझड़ को आना होता है सब पत्तों को गिर जाना होता है, सूखा पत्ता गिरेगा ,तभी तो नया पत्ता खिलेगा, समय की गति को तुम मान देना, लेकिन जब बसंत आये तो उसमे भी मत रम जाना क्योकि बसंत भी हमेशा न रहेगा बस यूँ ही पतझड़ और बसंत को जीते हुए, हम सब को सीख देते हुए अडिग रहते हैं हमेशा चिनार और पिता
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (31-07-2019) को "राह में चलते-चलते"
जवाब देंहटाएंपर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आपका
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