वो बच्ची....
दद्दू उसे बुलाती रही
गलत उसकी नजरों को भांपती रही
ताड़ती थी निगाहे उसे
तार तार वो होती रही
कातर नजरे गुहार लगाती रही
शर्मसार इंसानियत रपटे लिखाती रही
धृतराष्ट्र राज करते रहे
हवालातों में पिता मरते रहे
बाहर औलादें सिसकती रही
न जाने किस भरोसे
वो तुफानों से टकराती रही
खेलने खाने के मनमौजी दिनों में वो
जीवन के तीखे तेवरों को
अपनी कम उम्र में पिरोती रही
रग रग, रोम रोम में
साहस को सजाकर
अदना सी होकर खासमखास से पंगा लेती रही
लेकिन.....
रसुखदारों के आगे वो टिक न सकी
उसकी लाखों की इज्जत
दो टके की बनी रही
न जाने कितने शकुनी षड्यंत्रों की
चाल में फंसती रही
हिम्मत न हारकर भी वो
अपनों को खोती रही,पर हर हाल में जुझती रही
न जाने कौन जीता, कौन हारा
खेल बिगड़ा, पासा पलटा
अब अपनी ही सांसों से वो जुझ रही
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है
टिप्पणियाँ
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'