पिछले दिनों एक बहुत दिलचस्प किताब पढ़ी, जिसने न केवल सोचने पर मजबूर किया बल्कि झकझोरा भी।
किताब है प्रवासी भारतीय समाज की स्थिति पर जो डॉलर समेटने के मायाजाल में है। हालांकि जब किताब लिखी गयी थी तब से अब तक में कुछ परिवर्तन तो निसंदेह हुए है , अमेरिका में बसने का सपना आज की नयी पीढ़ी में उतना चरम पर नहीं है जितना तात्कालिन समय में था और यह एक सुखद परिवर्तन है।
पिछले दिनों मैं भी कुछ समय के लिये अमेरिका में थी शायद इसीलिये इस किताब से अधिक अच्छे से जुड़ पायी और समझ पायी। एक महीने के अपने अल्प प्रवास में हालांकि वहाँ का जीवन पूरी तरह नहीं समझ पायी पर एक ट्रेलर जरुर देख लिया। वहाँ रह रहे रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलते हुए कुछ बातें धूंध की तरह हट गयी।
यह किताब उस दौरान मेरे साथ थी लेकिन पढ़ नहीं पायी। जब भारत लौटने का समय आया तो मैंने यह किताब निकाली और सोचा कि 16 घंटे की यात्रा के दौरान इसे पढ़ती हूँ। समय और मौका दोनो इतने सटीक थे कि मैं एक सिटींग में ही 200 पन्ने पढ़ गयी। ऐसा लग रहा था कि जो मैं सोच रही थी या जो मैंने वहाँ रहने के दौरान महसूस किया, सूर्यबाला जी (लेखिका) ने वही सब बयां कर दिया । विदेश में रहने के अपने नफा नुकसान है लेकिन लेखिका ने बिल्कुल निरपेक्ष रहते हुए हर चरित्र की मनस्थिती का सही चित्रण किया है । वेणु और वेणु की माँ, जो कि इस किताब के मुख्य किरदार है, उनके आपस में अबोले संवाद इतने गहरे लिखे गये है कि किसी भी दिल को खासतौर से एक माँ के मन को अनायास ही छूकर आ जाते है ।
जैसे जैसे किताब के पन्ने पलटते जाते है , किरदार जुड़ते जाते है, कहानी की रूपरेखा बदलती सी नजर आती है, लेकिन घुमती रहती है अपनी ही धरती के आस पास।
अमेरिक में बस चुके वेणु को लेकर घर में सब गर्वित है , समय समय पर उसके परिवेश का बखान करने से घरवाले चुकते नहीं है। वेणु असमंजस में रहता है और देश विदेश की धरती के बीच कही अधर में रहता है। जीवनसंगीनी मेधा उसके जीवन में फुहार की तरह आती है जो कि बिल्कुल दुविधा में नहीं है, विदेश में बसने को लेकर उसकी आतुरता, ललक बच्चों की तरह है। विदेश में कदम रखते ही उसकी परिकथा हकीकत की जमीन पर आ जाती है लेकिन मेधा बहुत जल्दी वहाँ के माहौल में ढल जाती है और विलायती रंग में रंग जाती है।
उनके परिवार की वृद्धी होती है, दो बच्चों का आगमन होता है ,वेणु के मम्मी पापा कभी कभी अब उनके पास आकर भी रहते है। समय बदलता रहता है और समय के साथ सब लोग भी लेकिन दिल के एक कोने में कुछ होता है जो कभी बदलना नहीं चाहता, सिवाय मेधा के, लेकिन एक वक्त ऐसा आता है जब मेधा भी दिल के उस कोने के समक्ष नतमस्तक होती है जो कि बदलता नहीं है।
इसी किताब का एक अंश मैं यहाँ रखना चाहूंगी जो वेणु का अपनी माँ से अबोला संवाद है .....
" " फिर भी , कसूरवार तो मैं अपनी नजरों में हूँ ही माँ ! कहाँ, क्या गलती हो गई, पता नहीं।शायद अलग-अलग देशों के 'गलत' और "सही' में भी तो फरक होते हैं। जो कुछ यहाँ समाज में स्वीकृत है,वह सब कुछ जबरन ही सही, हम, या कहें , मैं नहीं स्वीकार पाया।
लेकिन मेधा तो यहाँ के ही हिसाब से चल रही थी । उसकी मर्जी भी कहाँ चली.. ? उसका
चाहा भी कहाँ हुआ. ? सच तो यह है कि मेधा मुझसे कहीं ज्यादा डिस्टर्ब हुईं थी। शायद
इसलिए क्योंकि मेरे मोहभंग की प्रक्रिया तो काफी पहले शुरू हो चुकी थी जबकि मेधा
बैधड़़क , तेज कदमों से चलती हुईं अचानक औधी गिरी थी।"
उपन्यास का अंत अविश्वसनीय रुप से सुखद है, कम से कम मुझे ऐसे अप्रत्याशित अंत की उम्मीद कतई नहीं थी लेकिन सुखद अंत सुकून देता है ।
देश विदेश की धरती पर उखड़ते कदम और आसमानों पर पलते सपनों की जदोजहद भरी कहानी है यह पुस्तक।
इसका एक और अंश .....
" अब तक की सारी उम्र जिन्दगी में तरतीबियाँ बिठाते ही बीती.. । यह लाना है,वह पाना है..।
वह पाना है जो किसी के पास नहीं, जो किसी ने न पाया हो......और पाकर ऐसे रखना है कि किसी
को कानोंकान खबर न हो...। लेकिन अब पाते और खोतेजाने की भी तो एक सीमा होती है। तब कभी-कभी मन में आता है--सब पाया, समेटा एक साथ छितरा दें मुक्त हो जाएँ इस सबसे। बहुत पा लिया वर्तमान को। बहुत सहेज लिया भविष्य को। बेतरतीब हो जाने दें अब सब कुछ..!
यह भविष्य भी अच्छा झाँसा है- बेशुमार लालसाओं,उमंगों, अकांक्षाओं चन्दोवे तानता, जाने कव चुपचाप वर्तमान गड़प्प हो जाता है। ऐसा लगता है हमें मूर्ख बना गया। हम समझ ही नहीं पाते..और देखते-देखते अन्तत: क्या रह जाता है हमारे पास ?
अतीत हो गए वर्तमान, और वर्तमान हो गए भविष्य की ढेरम-ढेर पिटारियाँ......बेतरतीब लेकिन बेहद सम्मोहक। कुतुबनुमा की तरह ये स्मृतियाँ ही परिचालित, संचालित करती हैं हमारे जीवन को.. .।"
किताब : कौन देस को वासी
वेणु की डायरी
लेखिका : सूर्यबाला
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 399/ रूपये
किताब है प्रवासी भारतीय समाज की स्थिति पर जो डॉलर समेटने के मायाजाल में है। हालांकि जब किताब लिखी गयी थी तब से अब तक में कुछ परिवर्तन तो निसंदेह हुए है , अमेरिका में बसने का सपना आज की नयी पीढ़ी में उतना चरम पर नहीं है जितना तात्कालिन समय में था और यह एक सुखद परिवर्तन है।
पिछले दिनों मैं भी कुछ समय के लिये अमेरिका में थी शायद इसीलिये इस किताब से अधिक अच्छे से जुड़ पायी और समझ पायी। एक महीने के अपने अल्प प्रवास में हालांकि वहाँ का जीवन पूरी तरह नहीं समझ पायी पर एक ट्रेलर जरुर देख लिया। वहाँ रह रहे रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलते हुए कुछ बातें धूंध की तरह हट गयी।
यह किताब उस दौरान मेरे साथ थी लेकिन पढ़ नहीं पायी। जब भारत लौटने का समय आया तो मैंने यह किताब निकाली और सोचा कि 16 घंटे की यात्रा के दौरान इसे पढ़ती हूँ। समय और मौका दोनो इतने सटीक थे कि मैं एक सिटींग में ही 200 पन्ने पढ़ गयी। ऐसा लग रहा था कि जो मैं सोच रही थी या जो मैंने वहाँ रहने के दौरान महसूस किया, सूर्यबाला जी (लेखिका) ने वही सब बयां कर दिया । विदेश में रहने के अपने नफा नुकसान है लेकिन लेखिका ने बिल्कुल निरपेक्ष रहते हुए हर चरित्र की मनस्थिती का सही चित्रण किया है । वेणु और वेणु की माँ, जो कि इस किताब के मुख्य किरदार है, उनके आपस में अबोले संवाद इतने गहरे लिखे गये है कि किसी भी दिल को खासतौर से एक माँ के मन को अनायास ही छूकर आ जाते है ।
जैसे जैसे किताब के पन्ने पलटते जाते है , किरदार जुड़ते जाते है, कहानी की रूपरेखा बदलती सी नजर आती है, लेकिन घुमती रहती है अपनी ही धरती के आस पास।
अमेरिक में बस चुके वेणु को लेकर घर में सब गर्वित है , समय समय पर उसके परिवेश का बखान करने से घरवाले चुकते नहीं है। वेणु असमंजस में रहता है और देश विदेश की धरती के बीच कही अधर में रहता है। जीवनसंगीनी मेधा उसके जीवन में फुहार की तरह आती है जो कि बिल्कुल दुविधा में नहीं है, विदेश में बसने को लेकर उसकी आतुरता, ललक बच्चों की तरह है। विदेश में कदम रखते ही उसकी परिकथा हकीकत की जमीन पर आ जाती है लेकिन मेधा बहुत जल्दी वहाँ के माहौल में ढल जाती है और विलायती रंग में रंग जाती है।
उनके परिवार की वृद्धी होती है, दो बच्चों का आगमन होता है ,वेणु के मम्मी पापा कभी कभी अब उनके पास आकर भी रहते है। समय बदलता रहता है और समय के साथ सब लोग भी लेकिन दिल के एक कोने में कुछ होता है जो कभी बदलना नहीं चाहता, सिवाय मेधा के, लेकिन एक वक्त ऐसा आता है जब मेधा भी दिल के उस कोने के समक्ष नतमस्तक होती है जो कि बदलता नहीं है।
इसी किताब का एक अंश मैं यहाँ रखना चाहूंगी जो वेणु का अपनी माँ से अबोला संवाद है .....
" " फिर भी , कसूरवार तो मैं अपनी नजरों में हूँ ही माँ ! कहाँ, क्या गलती हो गई, पता नहीं।शायद अलग-अलग देशों के 'गलत' और "सही' में भी तो फरक होते हैं। जो कुछ यहाँ समाज में स्वीकृत है,वह सब कुछ जबरन ही सही, हम, या कहें , मैं नहीं स्वीकार पाया।
लेकिन मेधा तो यहाँ के ही हिसाब से चल रही थी । उसकी मर्जी भी कहाँ चली.. ? उसका
चाहा भी कहाँ हुआ. ? सच तो यह है कि मेधा मुझसे कहीं ज्यादा डिस्टर्ब हुईं थी। शायद
इसलिए क्योंकि मेरे मोहभंग की प्रक्रिया तो काफी पहले शुरू हो चुकी थी जबकि मेधा
बैधड़़क , तेज कदमों से चलती हुईं अचानक औधी गिरी थी।"
उपन्यास का अंत अविश्वसनीय रुप से सुखद है, कम से कम मुझे ऐसे अप्रत्याशित अंत की उम्मीद कतई नहीं थी लेकिन सुखद अंत सुकून देता है ।
देश विदेश की धरती पर उखड़ते कदम और आसमानों पर पलते सपनों की जदोजहद भरी कहानी है यह पुस्तक।
इसका एक और अंश .....
" अब तक की सारी उम्र जिन्दगी में तरतीबियाँ बिठाते ही बीती.. । यह लाना है,वह पाना है..।
वह पाना है जो किसी के पास नहीं, जो किसी ने न पाया हो......और पाकर ऐसे रखना है कि किसी
को कानोंकान खबर न हो...। लेकिन अब पाते और खोतेजाने की भी तो एक सीमा होती है। तब कभी-कभी मन में आता है--सब पाया, समेटा एक साथ छितरा दें मुक्त हो जाएँ इस सबसे। बहुत पा लिया वर्तमान को। बहुत सहेज लिया भविष्य को। बेतरतीब हो जाने दें अब सब कुछ..!
यह भविष्य भी अच्छा झाँसा है- बेशुमार लालसाओं,उमंगों, अकांक्षाओं चन्दोवे तानता, जाने कव चुपचाप वर्तमान गड़प्प हो जाता है। ऐसा लगता है हमें मूर्ख बना गया। हम समझ ही नहीं पाते..और देखते-देखते अन्तत: क्या रह जाता है हमारे पास ?
अतीत हो गए वर्तमान, और वर्तमान हो गए भविष्य की ढेरम-ढेर पिटारियाँ......बेतरतीब लेकिन बेहद सम्मोहक। कुतुबनुमा की तरह ये स्मृतियाँ ही परिचालित, संचालित करती हैं हमारे जीवन को.. .।"
किताब : कौन देस को वासी
वेणु की डायरी
लेखिका : सूर्यबाला
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 399/ रूपये
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