तुम देह को भोग कर आना
अपना सारा इश्क़ करके आना
जब बातों से जी भर जाये
तब आना
तुम तब आना
जब सूरज अस्त होते होते
थोड़ा सा बचा हो
सिंदूरी आसमाँ रात की अगवाई में सजा हो
पंछी अपने घरों को लौट रहे हो
तुम भी लौटना वैसे ही
लेकिन पूरी तरह रिक्त होकर आना
तभी तो भर पाओगे मुझको खुद में
मुझे तुम्हारा इंतजार रहेगा
अंतिम सूरज के अंतिम टुकड़े तक
तुम अपनी धूरी पर घुमना
मैं घुमता रहूँगा अपनी पर
और एक वक्त आयेगा
तब कंपन होगा, स्पंदन होगा
छू जायेंगे एक दूजे को फिर से हम
लेकिन बस....
कोई इच्छा शेष मत लाना
तुम जी भर के जीकर आना
सिर्फ मुझसे एकाकार होने आना
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है
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