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सुकून की तलाश

पुलवामा अटैक से हम सब आहत है। पुरा देश सदमे में है ,एक क्रोध की लहर हर रग में है । क्रोध से कभी किसी का भला नहीं होता लेकिन इस बार ये क्रोध हम सब को भारतीयता की डोर में बाँध रहा है,तमाम जातिगत मतभेदों के बावजूद ।
                देश शहीदों के लिये दुआएं कर रहा है। मदद के हाथ आगे आ रहे है । मुझे मेरे देश पर गर्व हो रहा है ,लेकिन दुसरी तरफ अपनी बेबसी पर गुस्सा भी आ रहा है ।
             पहला गुस्सा तो इस बात पर कि क्यो हमारे जवानों को मारा गया हालांकि इस बात पर कई सवाल जवाब सोशियल मीडिया पर हो चुके है और क्या सही है क्या गलत है ,कुछ समझ नहीं आ रहा । बदला लेने की भावना व्यक्त करो तो हिसंक बता दिये जाते हो और शांति की बात फिलहाल अन्तर्मन स्वीकार नहीं कर पा रहा।
           दुसरा गुस्सा या फिर ग्लानि कहे तो ज्यादा सही होगा,वो इस बात पर कि शहीदों के परिवारों के लिये कुछ कर नहीं पा रही। बात महज डोनेशन की नहीं हैं.... उन तक पैसा पहूँचाने के बहुत सहज सुलभ उपाय मुहैया है और पुरा देश खुले हाथों से मदद पहूँचा भी रहा है ,लेकिन मेरा मन कुछ और चाह रहा । मैं उन परिवारों तक कम से कम एक परिवार से तो मिलना चाहती हूँ पर मेरे लिये यूँ बाहर निकलना आसान नहीं।
     मन की भावनाएं मिलना चाहती उस पत्नी से जिसका पति चार दिन पहले ही घर से गया था और अब टुकड़ों में लौटा है....मैं उस पत्नी का रूदन टीवी स्क्रीन पर नहीं , साक्षात महसूस करना चाहती....हालांकि यह बहुत मुश्किल है मेरे लिये ऐसे किसी रूदन को देखना, लेकिन फिर भी देखना चाहती हूँ ताकि जीवन भर उस दर्द को महसूस करती रहूँ । जब वो रूदन थोड़ा थमे तो मैं उसके सख्त रिक्त हाथों को अपने हाथों से गर्माहट दे सकूँ और समेट सकूँ उसको अपनी बाहों में । बिना एक शब्द कहे मैं उसे अहसास करा सकूँ कि मैं हूँ तुम्हारा दुख सुनने।
           मिलना चाहती हूँ उस माँ से जिसका दुख सबसे बड़ा है...इस पुरी दुनिया से भी बड़ा। जवान बेटे को खोने की पीड़ा सिर्फ वही समझ सकती है । मैं बात करूँगी उसके साथ उसके बेटे की, उसकी आदतों की ,उसकी बदमाशियों की और तब तक करती रहूँगी जब तक वो बताती रहेंगी। जब बात मंद पड़ जायेगी तब मैं धीमे से उनके आँसू पौछना चाहूँगी ।
       मैं मिलना चाहूँगी उन नन्हे बच्चों से जिन्हे ये भी नहीं पता कि उन्होने क्या खो दिया। उनकी आँखों की निश्छलता में डूब जाना चाहूँगी। उनके सतरंगी सपनों का हिस्सा बनना चाहूँगी । उनके साथ बैठ कर खाली पन्नों पर आकृतियाँ बनाना चाहती हूँ। उन्हे अपने साथ कला में रमाना चाहती हूँ ताकि वो जी सके खुद के साथ....देख सके युद्ध और बारूदों से दूर एक खूबसूरत दुनिया को। 

       मैं जानती हूँ ये सब संभव नहीं मेरे लिये.....लेकिन मन इतना अथाह पीड़ा में है कि कुछ और सोच ही नहीं पा रहा ।

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