पुलवामा अटैक को लेकर लोगो का रोष अपने चरम पर है। लोग भड़के हुए है और यह गुस्सा,यह विद्रोह जायज भी है । मैं खुद भी जैसे बदले की आग में झुलस रही हूँ । हमारे जवानों की मौत का बदला लेना बहुत जरूरी है । लोग कैम्पैन चला रहे है , कैंडल मार्च कर रहे है,नारे लगा रहे है और यह सब बिल्कुल सही भी है और जरुरी भी है । जब तक कार्यवाही नहीं हो हमे इस कुर्बानी को भुलना नहीं है और न ही सरकार को भूलने देना है ।
इस दुख में पुरा देश एक साथ है और अपने अपने तरीकों से हम सब विरोध प्रदर्शन कर भी रहे है । लेकिन इन सब के बीच विरोध करते हुए कही न कही हम संयम ही नहीं अपनी संस्कृति भी खो रहे है ।
क्या माँ बहन की गालियों से ही पाकिस्तान का बहिष्कार किया जा सकता है ?
माँ की गालियों से सजे पोस्टर हमे न्याय दिलवायेंगे ?
पाकिस्तान की माँ बहन एक करते वक्त हम किस संस्कृति का प्रचार करते है ?
क्या हमारे देश में 'माँ ' महज एक शब्द है ?
किसने अधिकार दिया उसे गाली में स्थापित करने का ?
माना कि हमारा गुस्सा जायज है लेकिन माँ बहन की गालियों के बिना भी हम कही अधिक उग्रता से अपना विरोध दिखा सकते है । ये गालियां देकर हम हमारी ही परवरिश को शर्मिंदा कर रहे है । गालियां देना आसान होता है , फ्रर्स्ट्रेशन निकल जाता है....लेकिन मुश्किल होता है डटे रहना अपनी ही बात पर । अपनी ही संस्कृति की धज्जियां उड़ाकर हम क्या साबित कर रहे है । विरोध प्रदर्शन करने का यह सही तरीका कतई नहीं है।
और हाँ, यह पोस्ट स्त्रीवादी नहीं है ना ही माँ बहन की गालियों की जगह बाप भाई के इस्तेमाल को तवज्जों दी गई है । कहने का तात्पर्य यही है कि जो गलत है वो गलत है । गालियां देकर हम अपना ही स्तर गिरा रहे है , वो भी ऐसे लोगो के सामने जिनका कोई स्तर ही नहीं । विरोध कीजिए, डंके की चोट पर कीजिए, अपने अधिकारों के लिये लड़िये ....लेकिन गंदी जबान का साथ लेकर नहीं।
इन दिनों एक किताब पढ़ रही हूँ 'मृत्युंजय' । यह किताब मराठी साहित्य का एक नगीना है....वो भी बेहतरीन। इसका हिंदी अनुवाद मेरे हाथों में है। किताब कर्ण का जीवन दर्शन है ...उसके जीवन की यात्रा है। मैंने जब रश्मिरथी पढ़ी थी तो मुझे महाभारत के इस पात्र के साथ एक आत्मीयता महसूस हुई और हमेशा उनको और अधिक जानने की इच्छा हुई । ओम शिवराज जी को कोटिशः धन्यवाद ....जिनकी वजह से मैं इस किताब का हिंदी अनुवाद पढ़ पा रही हूँ और वो भी बेहतरीन अनुवाद। किताब के शुरुआत में इसकी पृष्ठभूमि है कि किस तरह से इसकी रुपरेखा अस्तित्व में आयी। मैं सहज सरल भाषाई सौंदर्य से विभोर थी और नहीं जानती कि आगे के पृष्ठ मुझे अभिभूत कर देंगे। ऐसा लगता है सभी सुंदर शब्दों का जमावड़ा इसी किताब में है। हर परिस्थिति का वर्णन इतने अनुठे तरीके से किया है कि आप जैसे उस युग में पहूंच जाते है। मैं पढ़ती हूँ, थोड़ा रुकती हूँ ....पुनः पुनः पढ़ती हूँ और मंत्रमुग्ध होती हूँ। धीरे पढ़ती हूँ इसलिये शुरु के सौ पृष्ठ भी नहीं पढ़ पायी हूँ लेकिन आज इस किताब को पढ़ते वक्त एक प्रसंग ऐसा आया कि उसे लिखे या कहे बिना मन रह नहीं प
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