देह के समीकरण से परे देखना कभी उसे
समूचा ब्रह्मांड समेट के रखती है
खिलखिलाते लबों के पीछे मुस्कुराती सी
जिंद़गानी सहेजे रखती है
देखना कभी नजरे मिलाकर, न जाने कितने
सैलाब समेटकर रखती है
ब्याह की चुनरी की नीचली सतह में, अपना
कुवांरापन छुपाकर रखती है
छूई हुई देह में, संभालकर आज भी
अनछूआ एक मन रखती है
नही बाँटती वो किसी के भी साथ
ये मन और वो अल्हड़ कुवांरापन
सच है कि वर्जिन नहीं होती है, पर
एक वर्जिन आत्मा रखती है
और उस वर्जिनिटी को
भंग करने की इजाजत
वो किसी को नहीं देती है
समझना कभी उसके इस भुगोल को भी
अपने मन के उतार चढ़ाव का हर लेखा मैं यहां लिखती हूँ। जो अनुभव करती हूँ वो शब्दों में पिरो देती हूँ । किसी खास मकसद से नहीं लिखती ....जब भीतर कुछ झकझोरता है तो शब्द बाहर आते है....इसीलिए इसे मन का एक कोना कहती हूँ क्योकि ये महज शब्द नहीं खालिस भाव है
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