सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

उत्थान

जब हम किसी भी तरह की परेशानी में होते है तो उस वक्त हमे और अधिक कलात्मक या रचनात्मक हो जाना चाहिये। रचनात्मकता से मेरा तात्पर्य किसी विशेष उपलब्धि से नही है । कोई भी साधारण सा काम, जिसे आपने मन से किया , बस,वो रचनात्मक है और कलात्मक भी।  ये सभी साधारण काम आपको असाधारण रुप से मजबूत करेंगे ।कभी कभी  जब इन साधारण से कामों पर आपकी पीठ थपथपाई जायेगी तो वो अपने आप में अद्भुत होगा , आपका मनोबल इतना अधिक बढ़ जायेगा कि तकलीफे हाथ छुड़ाकर भाग जायेगी। 
            हर तरह का वो काम करे जो आपको तृप्ति दे और उससे मिलने वाली प्रशंसाओं को सहेजे । वे कतई आपके घमंड की विषयवस्तु नहीं है , बल्कि ये प्रशंसापत्र तो दस्तावेज़ है आपके अपने उत्थान के। आपके हर आगे बढ़ते कदम का मार्ग प्रशस्त करते है ये शब्द। बस, शब्दों के मर्म को पहचानने की समझ रखे । औपचारिकता और आत्मिकता के भेद को खंगालते हुए बना डालिये पुलिंदा इन भावों का, शब्दों का। 
               आंनद महसूस करते हुए जीते रहे जिंदगी। कोई न भी बने तो खुद अपना मनोबल बने और टूटने न दे खुद को। भले ही समय विकट है पर यह आपको एक दिशा दे रहा है ....आयाम दे रहा है । इस जगत में व्यर्थ कुछ भी नहीं है । ये साल शताब्दियों की सीख समाहित करके लाया है । हम क्या खोयेंगे , क्या पायेंगे....इसका लेखा जोखा मत कीजिये। बस...रंगमंच पर चल रहे इस नाटक को मूक बनकर देखिये। मंच के कलाकार भी आप है और दर्शक दीर्घा में बैठे दर्शक भी आप ही है।  

टिप्पणियाँ

बहुत सुन्दर और सार्थक।
पत्रकारिता दिवस की बधाई हो।
Nitish Tiwary ने कहा…
बिल्कुल सही लिखा है आपने।
आत्ममुग्धा ने कहा…
शुक्रिया आपको भी पत्रकारिता दिवस की बधाईयां

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

कुछ दुख बेहद निजी होते है

आज का दिन बाकी सामान्य दिनों की तरह ही है। रोज की तरह सुबह के काम यंत्रवत हो रहे है। मैं सभी कामों को दौड़ती भागती कर रही हूँ। घर में काम चालू है इसलिये दौड़भाग थोड़ी अधिक है क्योकि मिस्त्री आने के पहले पहले मुझे सब निपटा लेना होता है। सब कुछ सामान्य सा ही दिख रहा है लेकिन मन में कुछ कसक है, कुछ टीस है, कुछ है जो बाहर की ओर निकलने आतुर है लेकिन सामान्य बना रहना बेहतर है।        आज ही की तारीख थी, सुबह का वक्त था, मैं मम्मी का हाथ थामे थी और वो हाथ छुड़ाकर चली गयी हमेशा के लिये, कभी न लौट आने को। बस तब से यह टीस रह रहकर उठती है, कभी मुझे रिक्त करती है तो कभी लबालब कर देती है। मौके बेमौके पर उसका यूँ असमय जाना खलता है लेकिन नियती के समक्ष सब घुटने टेकते है , मेरी तो बिसात ही क्या ? मैं ईश्वर की हर मर्जी के पीछे किसी कारण को मानती हूँ, मम्मी के जाने के पीछे भी कुछ तो कारण रहा होगा या सिर्फ ईश्वरीय मर्जी रही होगी। इन सबके पीछे एक बात समझ आयी कि न तो किसी के साथ जाया जाता है और ना ही किसी के जाने से दुनिया रुकती है जैसे मेरी आज की सुबह सुचारु रुप से चल रही है ...