सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

खो गया बचपन

"ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो
मगर मुझको लौटा दो मेरे बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी "

मशहूर ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह की ये पंक्तियाँ जीवन के उस खुबसूरत मोड़ की याद दिलाती है,जो आज के दौर के बच्चों की जिंदगी में आता ही नहीं......और शायद इसीलिए आज के बच्चे इन पंक्तियों की पीड़ा भी नहीं समझ सकते .
जिंदगी के इन सुंदर लम्हों से महरूम आज के बच्चे,बच्चे ही नहीं रहे . उनका बचपन खो गया है,इस व्यस्त दुनियां में , जहाँ सब तेजी से आगे बढे जा रहे है , किसी को किसी के लिए समय नहीं.........बिलकुल इसी तरह बच्चों को भी जल्दी से जल्दी बड़ा होना है.उन्हें नहीं मालूम कि वे क्या चीज़ खो रहे है . आज उन्हें माँ के आँचल की नहीं बल्कि बाज़ार में आये नए gadgets की तलाश है .रात को सोने के लिए माँ की लौरी नहीं बल्कि कानफोडू संगीत की जरुरत महसूस होती है . माना की आज के बच्चे शातिर दिमाक होते है , कंप्यूटर से भी तेज चलता है इनका दिमाक.......दो टुक बातों से समस्या का हल कर देते है ........कानों में headphone लगाये ये आज की पीढ़ी बड़ों की नसीहतों को अपने पास भी नहीं फटकने देती.....हमे नाज़ है उनकी समझदारी पर ......लेकिन हम उनके बचपन का भोलापन चाहते है .......उनकी मासूम बातें चाहते है जिसपर हम मर मिटे.......चाहते है वो खुबसूरत क्षण जो हमने तो जिए लेकिन हमारे बच्चे महसूस भी नहीं कर पाए. उनके पास तो समय ही नहीं है , बचपन के लिए , गली में खेलने के लिए , पेड़ पर चढ़ने के लिए , पतंग उड़ाने के लिए , गर्मियों की दुपहरी में गोला खाने के लिए , मेले में जाने के लिए , रामलीला में भरत-मिलाप देखने के लिए........................और भी ना जाने ऐसे कितने ही अनमोल पल है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हम खोते जा रहे है .
वैसे देखा जाए तो इसमें गलती हमारी ही है ................क्योंकी हम खुद भी भोला बचपन नहीं चाहते , हमे चाहिए तेज , शातिर और कंप्यूटर से भी तेज़ दिमाक वाली पीढ़ी

निदा फ़ाज़ली ने बिलकुल सही फ़रमाया है
"बचपन के नन्हें हाथों को
तुम चाँद-सितारें छूने दो,
दो-चार किताबें पढ़कर
ये भी हम जैसे हो जायेगे "

टिप्पणियाँ

हृदयस्पर्शी आलेख .... सच में आज की तकनीकी दुनिया में बचपन खो गया है ......

"बचपन के नन्हें हाथों को
तुम चाँद-सितारें छूने दो,
दो-चार किताबें पढ़कर
ये भी हम जैसे हो जायेगे "

सुंदर पंक्तियाँ पढवाई , आभार
आत्ममुग्धा ने कहा…
dhanyawaad monikaji.......mere nav-pallavit blog par nazar dalne ke liye.....abhi-abhi "cheatanya ka kona" dekha,man bhav-vibhor ho gaya
Rachana ने कहा…
bachpan bahut hi pyara aur komal shabd jisko yade puri umr sath deti hain
sunder likha hai
badhai
rachana
आत्ममुग्धा ने कहा…
thank you rachanaji,bahut-bahut aabhar ki aap mere blog per aai .anya rachanao par bhi tippani chahugi
My Quest ने कहा…
Acchaa vichar likha hai.... sundar
कनक अग्रवाल ने कहा…
बहुत सुंदर दोस्त ❤
सच में आज बच्चों का बचपन हमारी महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ गया है

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

सीख जीवन की

ये एक बड़ा सा पौधा था जो Airbnb के हमारे घर के कई और पौधों में से एक था। हालांकि हमे इन पौधों की देखभाल के लिये कोई हिदायत नहीं दी गयी थी लेकिन हम सबको पता था कि उन्हे देखभाल की जरुरत है । इसी के चलते मैंने सभी पौधों में थोड़ा थोड़ा पानी डाला क्योकि इनडोर प्लांटस् को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती और एक बार डाला पानी पंद्रह दिन तक चल जाता है। मैं पौधों को पानी देकर बेफिक्र हो गयी। दूसरी तरफ यही बात घर के अन्य दो सदस्यों ने भी सोची और देखभाल के चलते सभी पौधों में अलग अलग समय पर पानी दे दिया। इनडोर प्लांटस् को तीन बार पानी मिल गया जो उनकी जरुरत से कही अधिक था लेकिन यह बात हमे तुरंत पता न लगी, हम तीन लोग तो खुश थे पौधों को पानी देकर।      दो तीन दिन बाद हमने नोटिस किया कि बड़े वाले पौधे के सभी पत्ते नीचे की ओर लटक गये, हम सभी उदास हो गये और तब पता लगा कि हम तीन लोगों ने बिना एक दूसरे को बताये पौधों में पानी दे दिया।       हमे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, बस सख्त हिदायत दी कि अब पानी बिल्कुल नहीं देना है।      खिलखिलाते...

पुस्तक समीक्षा

पिछले दिनों एक बहुत दिलचस्प किताब पढ़ी, जिसने न केवल सोचने पर मजबूर किया बल्कि झकझोरा भी।       किताब है प्रवासी भारतीय समाज की स्थिति पर जो डॉलर समेटने के मायाजाल में है। हालांकि जब किताब लिखी गयी थी तब से अब तक में कुछ परिवर्तन तो निसंदेह हुए है , अमेरिका में बसने का सपना आज की नयी पीढ़ी में उतना चरम पर नहीं है जितना तात्कालिन समय में था और यह एक सुखद परिवर्तन है।          पिछले दिनों मैं भी कुछ समय के लिये अमेरिका में थी शायद इसीलिये इस किताब से अधिक अच्छे से जुड़ पायी और समझ पायी। एक महीने के अपने अल्प प्रवास में हालांकि वहाँ का जीवन पूरी तरह नहीं समझ पायी पर एक ट्रेलर जरुर देख लिया। वहाँ रह रहे रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलते हुए कुछ बातें धूंध की तरह हट गयी।      यह किताब उस दौरान मेरे साथ थी लेकिन पढ़ नहीं पायी। जब भारत लौटने का समय आया तो मैंने यह किताब निकाली और सोचा कि 16 घंटे की यात्रा के दौरान इसे पढ़ती हूँ। समय और मौका दोनो इतने सटीक थे कि मैं एक सिटींग में ही 200 पन्ने पढ़ गयी। ऐसा लग रहा...