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यात्रा

मैंने अपने जीवन में बहुत सी यात्राये की है,कई मनोहारी दृश्यों को अपने कैमरे में ही नहीं बल्कि अपने दिल में भी उतारा है.उनकी स्मृतिया आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है,लेकिन जो यात्रा मुझे सबसे अधिक आनंदित करती है वो है मेरे पैतृक स्थान 'राजस्थान' की यात्रा.
हर साल राजस्थान की यात्रा होती है ,फिर भी मालुम नहीं क्या है वहां की मिटटी में जो मेरी हर यात्रा को भीनी खुशबू से भर देती है.मेरा पैतृक स्थान है झुंझुनू ,जो सिर्फ पर्यटन की दृष्टि से ही नहीं बल्कि देश के कई होनहार-विरवानो की जन्मभूमि है.मुंबई में रहने के बावजूद अपने पैतृक स्थान की यात्रा करने के किसी भी मौके का मै लोभ-संवरण नहीं कर पाती .मेरी लोभ-पिपासा ही है की हर साल भयंकर गर्मी में राजस्थान पहुँच जाती हूँ.तब लगता है की सूर्य देवता ने अपनी सारी किरणों को इसी राज्य में भेज दिया हो और ओजोन परत का छेद भी यही है.लेकिन लू के थपेड़े भी हमें रोक नहीं पाते.
पुरे साल इस यात्रा का इंतज़ार रहता है और यात्रा पूरी होने पर अगली यात्रा की तैयारी.मुंबई जैसे शर की आधुनिकता ,बनावटीपन और औपचरिकताओ के बीच मेरा गावं एक बरगद की छावं है .सच है
शीतल बयार
ठंडी छाया
निश्छल प्यार
कितना कुछ पाया
मैंने मेरे गाँव में .
मेरी यात्रा की शुरुआत होती है 'गणगौर एक्सप्रेस 'से .मुंबई सेंट्रल पर हम इस रेलगाड़ी में बैठते है.महसूस होता है कि पूरा राजस्थान कई पहियों पर चल रहा हो .अपने लोग,अपनी भाषा और अपने खाने का स्वाद नथुनों में भर जाता है.सभ्य लोगो कि तरह हंसने के लिए मुश्किल से खुलने वाले होंठो कि जगह खुल के लगाने वाले ठाहाको ,माहौल में अपनापन भर देते है ,कोई औपचारिकता नहीं ,कोई नपा-तुला व्यवहार नहीं,बस सिर्फ ख़ुशी अपने पैतृक स्थान को देखने की.हम सब अपने अनुभवों को बांटने लगते है ,कोई सालासर बालाजी जा रहा है तो कोई श्याम बाबा के चरणों में धौक देने ,किसी को रानिसती दादी का बुलावा आया है तो किसी के पीहर में भतीजा हुआ है,किसी के भाई को सेहरा बंधेगा तो किसी की बहन डोली में बैठेगी ,हजारो बहाने है हम मारवाड़ियों के पास ,अपनों को अपने गाँव बुलाने के
छुक-छुक गाड़ी सरहदे पार करती है ,महारास्ट्र,मध्यप्रदेश और फिर राजस्थान .खिड़की के बाहर के दृश्य बताने लगते है की हमारा राजस्थान आ गया और स्वत:ही 'पधारो म्हारे देश'के शब्द कानो में गूंजने लगते है .पास के केबिन से आते मारवाड़ी गाने मानो अमृत घोल देते है.३५ की होने के बावजूद मेरा मन बच्चो की तरह झुमने लगता है ,खिड़की के पास वाली सीट पर पूर्णतया अपना कब्ज़ा जमा कर बैठ जाती हूँ .चमकीली तेज़ धुप ,रंग-बिरंगे परिधान ,सूखे पेड़ ,छोटे-छोटे घर ,रेल के पीछे हाथ हिलाते बच्चे ,चारो तरफ रंग ही रंग .
रेलयात्रा ख़त्म होती है,हम जयपुर पहुँच जाते है .सफ़र में साथी यात्रियों से विदा लेते है .मुझे स्टेशन का नज़ारा खुबसूरत लगता है ,हालाँकि बच्चो को यह बेसिर-पैर के लोगो की भीड़ लगती है,लेकिन
आजकल के बच्चे क्या जाने अपनी मिटटी की परिभाषा ............
लेकिन मेरा पड़ाव गुलाबी नगरी नहीं,मुझे एक और रेल पकड़नी है.हम जल्दी से गाड़ी में बैठते है और में पुनः सीट के पास बैठ जाती हूँ .बच्चे ढेर सारी शिकायते करने लगता है कि ऐ सी नहीं है taxi में चलेगे,यह तो रेलगाड़ी नहीं बैलगाड़ी है और में मुस्कुरा कर कहती हूँ 'adjust करो'.वो गुस्से में बैठ जाते है और मेरा मन उन्मुक्त उडान भरने लगता है .हाथ हिलाते बच्चे ,धुल उड़ाती आंधी,भागते हुए कीकर के पेड़ ,मुझे मेरे बचपन की यात्रा करा लाते है .चार घंटे के सफ़र में मै मेरा बचपन जी लेती हूँ .शाम को करीब ६ बजे हम झुंझुनू पहुचंते है.गोधुली बेला की चमकती हुई बालू रेत मुझे गर्वित होने का मौका देती है और मेरी आँखे भी चमक उठती है .पापा हमें लेने आते है ,नानाजी को देखकर बच्चे भी खिल उठते है .में खुश होती हूँ क्याकि में १५ दिन की छुट्टी पर हूँ पहले यह छुट्टीया १ महीने की हुआ करती थी.इन १०-१५ दिनों में में बच्चो को गाँव की पृष्ठभूमि से अवगत करना चाहती हूँ पर बच्चो की कोई दिलचस्पी नहीं .हम विश्व प्रसिद रानिसती का मंदिर देखने जाते है,जो अपनी बेजोड़ स्थापत्य कला का नमूना है ,तीन चार चौक की हवेलिया देखते है ,जिनमे से कुछ अभी सांस्कृतिक धरोहर है ,बावड़ियाँ कुएं ,किले और एसे ही कई एतिहासिक स्मारक अपनी मूक गाथा कहते प्रतीत होते है .मुझे अभिमान महसूस होता है इन्हे देखकर .
१५ दिन पंख लगाकर निकल जाते है और हम अपनी मुंबई यात्रा पर .मुझे लगता है कि मेरा बचपन ,मेरा वजूद मुठी में से रेत कि तरह निकल गया.नाम आँखों से १५ दिनों की यादें सहेज कर मै लौट आती हूँ अपनी गृहस्थी में.सुकून के पलों मै जी लेती वो लम्हे जिन्हें मैंने सहेजा है अपनी ही यादों के पिछवाड़े में .पक्षियों को उड़ाते देखती हूँ तो मेरा मन कहता है
अबके लाना तो मेरे शहर की मिटटी लाना
इससे बेहतर कोई तोहफा कोई सौगात नहीं.

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