इन दिनों टीवी पर दिखाये जा रहे और व्हाट्सएप पर वायरल हो रहे विडियों को देख रही हूँ, जिनमें एक जन सैलाब उमड़ता दिखाया जा रहा है। इस जन सैलाब में कुछ छोटे बच्चें है जो खेलते कुदते चले जा रहे है , कुछ इतने छोटे है जो किलक रहे है अपनी माँओं की गोद में, कुछ नवविवाहित से पति पत्नी है जो नयी दुनिया बसाने शायद शहर आये थे,अब सब समेट फिर से गाँव जा रहे है, कुछ अधेड़ से है जो बूरी तरह से ध्वंस दिख रहे है और भागे जा रहे है भरे पूरे परिवार को लेकर, कुछ नौजवान से है जिनके सिर पर बोझे है, कंधों पर भी सामान है, निराश से है। ये सारा जन सैलाब आज उसी पगडण्डी की ओर जा रहा है जिस पगडण्डी से होते हुए ये इस शहर वाली सड़क पर आ गये थे। एक विडियों में इन लोगों से पुछा गया कि पैदल कब तक चलोगे तो वे कहते है कि गूगल मैप बता रहा है कि छ: दिन में अपने गाँव पहूँच जायेंगे । मुझे उसका जवाब निशब्द कर गया...न जाने इन्हे कितने कितने किलोमीटर तक जाना है, साथ में बुजुर्ग है, महिलाएं है, बच्चें है ।
लॉकडाउन के इस वक्त में इतनी भीड़ देखकर हम सभी अपने घरों में बैठे लोग चिंतित है कि ऐसे हम कैसे कोरोना को भगा पायेंगे , लॉकडाउन कैसे सफल होगा....ये लोग समझते क्यो नहीं ?
ये गाँवों का वो तबका है जो शहरों में हमारे लिये काम करने आया है, ये मजदूर है जो हमे कमाकर देते है , इनके पास घर नहीं होते , साइट पर बने झोपड़ौ में रहते है या फिर किराये के कमरे में। रोज कमाते है रोज खाते है । ये कोरोना को नहीं जानते, इस सुक्ष्मजीवी का तो इन्हे खौफ नहीं। इन्हे डर है अपनी पेट की आग का जिसे शांत करने का जरिया अब इनके पास नहीं रहा। हम अपने घरों में दुबके बैठे है लेकिन इनके पास कोई घर नहीं, न रात की रोटी है न दिन की दाल , हालात ये है कि धरती की जमीन और आकाश की चादर भी नहीं ओढ़ सकते.....कहते है कि एक विषाणु ने इनके फुटपाथों पर कब्जा कर लिया है । ये जा नहीं रहे, धकेले गये है । जाना इनकी मजबूरी है, यहाँ रहेंगे तो खायेंगे क्या?
एक और वायरल विडियों देखा, जिसमें पुलिसकर्मीयों द्वारा इन पर अत्याचार किया जा रहा है। इस विडियों में कुछ नवयुवक है जिनके कंधों पर बैग है, शायद गाँव की ओर जा रहे है लेकिन पुलिसकर्मी इन्हे रोक लेते है क्योकि ये कानून का उल्लंघन कर रहे है और सजा के तौर पर उन्हे बैठकर कूदते हुए चलाया जाता है, कंधों पर टंगे बोझ के साथ । वो विडियों देखकर आत्मा रो पड़ी, मन द्रवित होकर विवश हो गया। हम लॉकडाउन है मानवजाति बचाने लेकिन मनुष्यता भी खो रहे है ऐसा करके कही न कही।
आसान होता है घर में रहकर बेघर लोगो को गलत ठहराना। ये लोग इनोसेंट है, न इनके पास पर्याप्त जानकारी है न मुलभुत साधन। ये नहीं जानते कोरोना की भयावहता। इनसे अधिक जाहिल है वो लोग जो 22 मार्च को जनता कर्फ्यू को तोड़ते हुए सड़कों पर देशभक्ति दिखाने निकल आये।
आज हालांकि सरकार ने इनके लिये बसों की व्यवस्था कर दी है। बस, डर है कि इन अनभिज्ञ लोगों की अनभिज्ञता का फायदा वो सुक्ष्मजीवी न उठाये। अगर इनमे से एक भी संक्रमित हो गया तो गाँव के गाँव तबाह हो जायेंगे पर यहाँ भी उम्मीद की किरण ये है कि ये तबका फुटपाथों पर रहकर, गंदगियों में पलकर बड़ा हुआ है, इनका इम्यून सिस्टम हर आघात सहकर मजबूत हुआ है.....ईश्वर करे इस जनसैलाब में एक भी व्यक्ति को ये संक्रमण न हो।
जितनी प्रार्थनाएं मैं अपने यूएस में रह रहे बेटे के लिये कर रही हूँ....उतनी ही प्रार्थनाएं मेरी इनके लिये है। बस, ये लोग सुरक्षित अपने घरों तक पहूँच जाये। आप नहीं जानते ऐसे समय में घर से दूर रहना क्या होता है ? बस, प्रार्थना कीजिए इनके लिये भी....प्लीज 🙏
टिप्पणियाँ
कितने लाचार हो गए हैं ,बस प्रार्थना ही कर सकते हैं हम ,मगर यकीन रखे प्रार्थना में बहुत शक्ति होती हैं ,सादर नमन
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31 -3-2020 ) को " सर्वे भवन्तु सुखिनः " ( चर्चाअंक - 3657) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
परहिताय सुंदर भाव ।