क्या आपने किसी नदी को बांध बनते हुए उसके बदलाव को महसूस किया है । मैंने महसूस किया है और देखा है ।
कुछ सालों पहले अपनी सिक्किम यात्रा के दौरान जब हम 'घुम' से 'पीलिंग' को जा रहे थे और हमारे साथ साथ चल रही थी नदी तिस्ता । मनमोहक रास्ता और तिस्ता का साथ, जैसे सब कुछ जादुई हो गया था। तिस्ता की चंचलता मेरा मन मोह रही थी और मुझे ऐसे लग रहा था जैसे उसने हमारा दामन पकड़ लिया हो ।एक पल को वह ओझल हो जाती तो दुसरे ही पल फिर से अपनी मस्ती के साथ हमसे मिलने आ जाती । कही कही उसकी लहरें उग्र रुप से खतरनाक थी तो कही शांत पर थोड़ी सी चचंल,लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गये यह गंभीर होती गयी और फिर आगे चलकर यह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गयी । मेरी उत्सुकता बढ़ गयी । मैंने ड्राईवर से इस बारे में पुछा तो उसने बताया कि यहाँ पर बाँध बनाया गया है इसलिये यह यहाँ रुक गयी है । एक बारगी मुझे लगा जैसे किसी चचंल से बच्चें के हाथ ही बांध दिये गये हो ।निःसंदेह मुझे तिस्ता की चचंल लहरों की कमी खल रही थी और उसकी स्वतंत्रता का हनन मुझे कदापि पसंद नहीं आया ।
माना कि बांध मनुष्य विकास का ही एक हिस्सा है लेकिन नदी का बांध हो जाना पीड़ादायक है, महसूस करके देखिये
एक बहती नदी को देखा है कभी
कैसे उछलती कुदती
पत्थरों को चुमती आगे बढ़ जाती है
उसका ठंडा स्वच्छ निर्मल पानी
अगर स्पर्श कर जाये
तो जैसे
आत्मा धुल जाये
मर्यादा में रहती है
किनारों से बतियाती है
पानी से भरी रहती है
लेकिन न जाने क्यो
उसी पानी की प्यास में
समंदर की ओर चली जाती है
लेकिन अगर
इस बीच कही भी
तुम इसे इसकी धारा के विपरीत करते हो
या बांधते हो अधर में नहीं
तो यह
आश्चर्यजनक रुप से शांत हो जाती है
या कभी कभार
उच्छृंखल भी हो जाती है
वो भुल जाती है अपनी मौलिकता
वो भुल जाती है अपना धर्म
जो कि सिर्फ बहना है
उसकी संगीतमय ध्वनि लुप्त हो जाती है
एक गुंजता कलरव मौन हो जाता है
वो तुम्हारी प्यास अब भी बुझायेगी
वो मीठा पानी तुम्हे अब भी देगी
पर एक बार
तुम फर्क महसूस करके देखना
क्योकि
अब वो नदी नहीं एक बांध है
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