जब जब पहाड़ों को देखती हूँ
उनकी विशालता
उनके वजूद के आगे
खुद को बौना महसूस करती हूँ
अपना कद पहचानने लगती हूँ
गुरूर को मिटते देखती हूँ
अक्सर मैं पहाड़ों से बतियाती हूँ
वो खड़े रहते है स्थितप्रज्ञ की तरह
सीना ताने
ऊँचाई की ओर प्रखर
मौसम की हर मार सहते
न जाने कब से
किसके इंतजार में
आसमान तकते
न जाने क्या क्या मुझे सीखा देते
इनकी ऊँचाई मुझे लालायित करती
एक दिन
एक ऊँचा सा पहाड़ मुझसे बोला
ऊँचाई देखती हो मेरी
कभी देखा है
जमीं में मैं कितना धँसा हुआ
शायद इस ऊँचाई से भी अधिक
मैं स्तब्ध थी
उस पहाड़ की प्रखरता, उसकी ऊँचाई
कही अधिक ऊँची थी अब
और मेरा बौनापन
कही अधिक बौना
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शुक्रवार 10 सितम्बर 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत ही शोधित सत्य - ऊँचाई लिये व्यक्तित्व गहरे होते हैं। आभार आपका।
जवाब देंहटाएंउस पहाड़ की प्रखरता, उसकी ऊँचाई
जवाब देंहटाएंकही अधिक ऊँची थी अब
और मेरा बौनापन
कही अधिक बौना
–इस अनुभूति पर तो आपका कद बढ़ गया
उम्दा भावाभिव्यक्ति