फूल को खिलते देखा
परिंदों को उड़ते देखा
कुछ ख़्वाबों को मुस्कुराते देखा
देखा जमीं को आसमां से मिलते हुए
देखा कुछ बच्चों को खिलखिलाते हुए
झूर्रियों से झांकते बचपन को देखा
धीमे सधे कदमों को देखा
दौड़ती भागती जिंदगी में....मैंने
ठहरे से कुछ नौजवानों को देखा
चाँद को चमकते देखा
सूरज को जलते देखा
आकाश को कभी नीला
कभी लाल तो कभी काला होते देखा
चिनार के पत्ते को लाल होते देखा
देवदार की ऊँचाइयों को छूकर देखा
विशाल पहाड़ों को मैंने बाहें फैलाये देखा
पतझड़ को जाते देखा
बसंत को आते देखा
बूढ़े पेड़ों पर मैंने फिर से यौवन दमकते देखा
मैंने देखा लम्हों को छूटते
देखा समय को रेत की तरह फिसलते
झरनों को गिरते देखा
नदी को बहते देखा
समंदर को मोंक की तरह देखा
कभी उग्र तो कभी शांत देखा
मैंने एक गरम फुलका देखा
थाली में परोसी धनिये की चटनी को देखा
अपने गिलास में मीठे पानी को देखा
दाल के पास सजे आम के अचार को देखा
महकती खुशबू के साथ भोजन को पकते देखा
आँखों में शरबती मिठास को देखा
देखा मैंने उन्ही आँखों में नमक को भी बहते हुए
हँसने पर फूल कैसे झरते है,मैंने ये भी देखा
शोक देखा, श्मशान देखा
मृत्यु बाद का मंजर भी देखा
अकेलापन देखा, नीरव सन्नाटा देखा
सब कुछ ध्वंस होते हुए देखा
कुछ रिश्तो को धुमिल होते देखा
देखा कुछ संबोधनों को जमीदोज़ होते हुए
देखा मैंने खुशियों के कलरव को भी
जिंदगी की गलबहियों को देखा
एक नवजात की वाइड स्माईल को देखा
बच्चों को झगड़ते देखा
होमवर्क से जी चुराते देखा
नये खून के बहकते कदमों को देखा
देखा मैंने मन की अस्थिरता को
हर रोज के तापमान को बदलते देखा
क्रोध देखा, हिंसा को देखा
छल कपट जालसाजी सब देखा
डिजिटल के इस दौर में
मैंने स्लेट पेंसिल का जमाना देखा
खुशकिस्मत हूँ मैं
सिर्फ चार दशक में मैंने कितना कुछ देखा
ना कल्पनाओं में देखा
न सपनों में देखा
मैंने हर चीज को हूबहू देखा
खूद की खुशकिस्मती को देखा
टिप्पणियाँ
नई रचना- सर्वोपरि?
क्रोध देखा, हिंसा को देखा
छल कपट जालसाजी सब देखा
डिजिटल के इस दौर में
मैंने स्लेट पेंसिल का जमाना देखा
वाह ! बहुत खूब ,ये सच हैं की जितने परिवर्तन इस 20 सालों में हुए हैं उतने कभी नहीं हुए ,सादर नमन
लेकिन कोरोना से बचाव जरूरी है।