सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

नीलकंठ

सुनो नीलकंठ
बिल्कुल तुम्हारी तरह
मैंने भी
विष को 
गले में 
उतार रखा हैं
ह्रदय तक
नहीं उतरने देती
और
बिल्कुल तुम्हारी ही तरह
एक तीसरा नेत्र
मेरे पास भी हैं
जिससे
देखती हूँ मैं 
हलाहल को
और 
महसूस करती हूँ
उसके आघात को
उसकी तीव्रता को
इसलिये
उसे पी कर
तुम्हारी तरह ही
धारण कर 
लेती हूँ
तुम भी गले से 
नीचे नहीं उतारते
और .....मैं भी
क्योकि
तुम्हारी अमरता
और 
मेरी जीवन्तता
हमे ऐसा 
करने नहीं देती ।

टिप्पणियाँ

सुन्दर प्रस्तुति.. . हूबहू मुलाकात  स्वागत है
अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(२२-०२-२०२०) को 'शिव शंभु' (चर्चा अंक-३६१९) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
Nitish Tiwary ने कहा…
बहुत सुंदर कविता। हर हर महादेव!
आपकी जीवन्तता को नमन। ईन्सान विवश और लाचार, प्रश्न और दुविधाओं से घिरा, कर भी क्या सकता है।
सुन्दर रचना। शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं ।
आत्ममुग्धा ने कहा…
जीवंतता स्वभावत: होनी चाहिये.....विवशता जीते जी मारती है.....शुक्रिया आपका
Kamini Sinha ने कहा…
बहुत ही सुंदर शिव वंदना ,शिव की कृपा आप पर बनी रहें
Anuradha chauhan ने कहा…
बहुत सुंदर प्रस्तुति

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उम्मीद

लाख उजड़ा हो चमन एक कली को तुम्हारा इंतजार होगा खो जायेगी जब सब राहे उम्मीद की किरण से सजा एक रास्ता तुम्हे तकेगा तुम्हे पता भी न होगा  अंधेरों के बीच  कब कैसे  एक नया चिराग रोशन होगा सूख जाये चाहे कितना मन का उपवन एक कोना हमेशा बसंत होगा 

मन का पौधा

मन एक छोटे से पौधें की तरह होता है वो उंमुक्तता से झुमता है बशर्ते कि उसे संयमित अनुपात में वो सब मिले जो जरुरी है  उसके विकास के लिये जड़े फैलाने से कही ज्यादा जरुरी है उसका हर पल खिलना, मुस्कुराना मेरे घर में ऐसा ही एक पौधा है जो बिल्कुल मन जैसा है मुट्ठी भर मिट्टी में भी खुद को सशक्त रखता है उसकी जड़े फैली नहीं है नाजुक होते हुए भी मजबूत है उसके आस पास खुशियों के दो चार अंकुरण और भी है ये मन का पौधा है इसके फैलाव  इसकी जड़ों से इसे मत आंको क्योकि मैंने देखा है बरगदों को धराशायी होते हुए  जड़ों से उखड़ते हुए 

कुछ दुख बेहद निजी होते है

आज का दिन बाकी सामान्य दिनों की तरह ही है। रोज की तरह सुबह के काम यंत्रवत हो रहे है। मैं सभी कामों को दौड़ती भागती कर रही हूँ। घर में काम चालू है इसलिये दौड़भाग थोड़ी अधिक है क्योकि मिस्त्री आने के पहले पहले मुझे सब निपटा लेना होता है। सब कुछ सामान्य सा ही दिख रहा है लेकिन मन में कुछ कसक है, कुछ टीस है, कुछ है जो बाहर की ओर निकलने आतुर है लेकिन सामान्य बना रहना बेहतर है।        आज ही की तारीख थी, सुबह का वक्त था, मैं मम्मी का हाथ थामे थी और वो हाथ छुड़ाकर चली गयी हमेशा के लिये, कभी न लौट आने को। बस तब से यह टीस रह रहकर उठती है, कभी मुझे रिक्त करती है तो कभी लबालब कर देती है। मौके बेमौके पर उसका यूँ असमय जाना खलता है लेकिन नियती के समक्ष सब घुटने टेकते है , मेरी तो बिसात ही क्या ? मैं ईश्वर की हर मर्जी के पीछे किसी कारण को मानती हूँ, मम्मी के जाने के पीछे भी कुछ तो कारण रहा होगा या सिर्फ ईश्वरीय मर्जी रही होगी। इन सबके पीछे एक बात समझ आयी कि न तो किसी के साथ जाया जाता है और ना ही किसी के जाने से दुनिया रुकती है जैसे मेरी आज की सुबह सुचारु रुप से चल रही है ...